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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . . । निदानस्थान भाषाटीकासमेत । क्षण संक्षेपरीति से वर्णन किये गये हैं। यहां | सेवन ), भय, शोक, चिंता, व्यायाम, मैसे आग प्रतिरोगमें इनके लक्षण विशेषरूप | थुन, इन संपूर्ण कारणों से, तथा वर्षा ऋतु से वर्णन किये जायगे॥ के प्रारंभ में, दिन और रात्रि के शेष भाग रोगोत्पत्ति का हेतु । में, तथा भोजन के अंत में वायु प्रकुपित सर्वेषामेव रोगाणां निदानं कुपिता मलाः। होता है । तत्प्रकोपस्य तु प्रोक्तं विविधाहितसेवनम् ॥ पितके कोप का कारण । __ अर्थ-प्रकुपित वात, पित्त और कफ ये पित्तं कद्रवम्लतीक्ष्णोष्णपटक्रोधविदाहिमिः तीनों संपूर्ण रोगोंके उत्पन्न होने के निदान शरन्मध्यान्हराच्यविदाहसमयेषु च । . अर्थात् कारण हैं । और इन बातादिके प्रकु- ___अर्थ-कटु, अम्ल, लक्षण, तीक्ष्ण, उष्ण पित होनेका कारण अनेक प्रकारके अहित | और विदाही पदार्थों का सेवन, तथा क्रोध पदार्थों का सेवन है। इन सब कारणों से शरद ऋतु में, मध्यान्ह तीन प्रकार का अहित सेवन ।। | में, आधीरात के समय और भाहार की अहितं त्रिविधौ योगस्त्रयाणां प्रागुदाहृतः । पच्यमान अवस्था में पित्तका प्रकोप हो. अर्थ-काल, इन्द्रियार्थ और कर्म इनका तीन प्रकार का हीन, मिथ्या अतिमात्र कफ के कोपका कारण । लक्षण वाला योग अहित होता है । इसका स्वादम्ललवणस्निग्धगुभिष्यंदिशीतलैः। पूर्ण वृत्तांत सूत्रस्थान में "अर्थैरसात्म्यः आस्यास्वप्नसुखाजीर्णदिवास्वप्नातिवणैः संयोगः कालः कर्मच दुष्कृतम्" इस श्लोक | प्रच्छर्दनाद्ययोगेन भुक्तमात्रवसतयोः १८ ॥ से लिखागया है। पूर्वाणे पूर्वरात्रे च श्लेष्मा द्वंद्वं तु संकरात् । - वायु के कोप का कारण । ___ अर्थ-मधुर, अम्ल, लवण, स्निग्ध, तिकोषणकषायाल्परूक्षप्रमितभोजनैः १४॥ | गुरु, अभिष्यन्दी और शीतल पदार्थो का धारणोदीरणनिशाजागरात्युच्चभाषणेः। | भोजन, सुखपूर्वक गद्दी तकिया लगाये बैठे क्रियातियोगभीशोचिंताव्यायाममैथुनैः ॥ ग्रीष्माहोरात्रिभुक्तांते प्रकुप्यति समीरणः। | रहना, अजीणे, दिन में सौना, अति वृंह अर्थ-पित्त, कटु, कषाय, अल्प, तथा | ण पदार्थों का अत्यन्त सेवन, वमन विरेचन प्रमित भोजन ) भोजन काल के व्यतीत । | का अतियोग, इन सब कारणों से तथा होने पर भोजन करना ), मलमूत्रादि के | भोजन के प्रथम काल में, वसंत ऋतु में उपस्थित वेग को रोकना, अनुपस्थित वेग | प्रातःकाल के समय वा रात्रि के पूर्वभाग में को बलपूर्वक निकालना, रात में जगना, | कफ प्रकुपित होता है । चिल्लाकर बोलना, क्रियातियोग (वमन । द्वन्द्व दोष अर्थात् वातपित, वातकफ विरेचन और आस्थापनादि क्रियाका अति | और कफपित्त वे दो दोषों के मिले हुए For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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