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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३४२) अष्टांगहृदय। विकल्प लक्षण । व्याधि अल्प हेतुओं द्वारा उत्पन्न होती है दोषाणां समवेतानां विकल्पोऽशांशकल्पना और जिसमें पूर्वरूप और रूप अल्प अंशगें अर्थ-एक ही व्याधि में मिले हुए दोषों प्रकट होते हैं वह व्याधि अवल अर्थात बल की जो अंशांश कल्पना है, उसे विकल्प हीन होती है। व्याधि के बलावल द्वाराभी कहते हैं, जैसे इस व्याधि में वात कुपित संप्राप्ति की विभिन्नता होती है । हुआ है, वह कभी एक रूक्ष गुणकी अ. व्याधि का काल । धिकता से, कभी लघुसे, कभी शीत से, नदिनभुक्तांशैाधिकाली यथामलम् ॥ कभी दो से वा कभी तीनसे दूषित होता इति प्रोक्तो निदानार्थः है। इसी तरह कटु अम्लादि से कुपित तं व्यासेनोपदेश्यति ॥ १२ ॥ पित्त कभी उष्ण गुण से, कभी तीक्ष्ण से, । अर्थ - रात, दिवस, ऋतु और भोजन कभी दो से वा कभी अधिक दूषित होता | इनके अवयवों द्वारा दोषके अनुसार व्याधि है। इस तरह परिमाण द्वारा जो दोषों के / का काल जाना जाता है । जैसे रात और कुपित होने का कारण निश्चय किया जाता | दिनका प्रथम अंश कफका है | मध्य अंश है, इसीको विकल्प कहते हैं। पित्तका है और शेष अंश वायुका है । वर्षा प्राधान्य लक्षण| .. ऋतुमें वायु प्रकुपित होता है । शरत्काल में स्वातंत्र्यपारतंत्र्याभ्यां व्याधेः पित्त और वसंतऋतुमें कफ कुपित होता है । प्रधान्यमादिशेत् । इसी तरह भोजन का प्रथम अंश कफका अर्थ-व्याधि का प्राधान्य स्वतंत्र और है । मध्यम अंश अर्थात् परिपाक का समय परतंत्र दो भेदों से जानाजाता है । इनमें पित्त का है और शेष अंश अर्थात् सभ्यक से स्वतंत्र व्याधि प्रधान होती है क्योंकि परिपकावस्थत वायुका प्रकोप काल है । इस स्वतंत्र (जो अन्य कारणों से न हुई हो ) तरह जिस जिस दोषका जो जो प्रकोपकाल व्याधि स्वनिर्दिष्ट चिकित्सासे साध्य होती कहा है उसी उसी काल में उसी उसी दोषसे है, परतंत्र व्याधि अप्रधान होती है क्योंकि उत्पन्न हुई व्याधि प्रकुपित होती है । जैसे वह प्रधान व्याधि के उपक्रम से ही शांत रात्रिके पूर्वभागमें वा दिनके प्रथम भागमें होजाती है। बसंतऋतु में भोजन करते ही कफज्वर बल बलावल कथन । हेत्वादिकापावयवैर्बलावलाविशेषणम् । लाभ करता है । इसी तरह बातपित्त का भी अर्थ-जो व्याधि संपूर्ण हेतुओं द्वारा जानो । अतएव कालभेद से भी संप्राप्ति मि. उत्पन्न होती है तथा जिसमें पूर्वरूप और । रूप पूर्ण रीति से प्रकाशित होते हैं उस इस जगह निदानार्थ अर्थात् निदान, व्याधि को बलवान समझना चाहिये । जो | पूर्वरूप, रूप, उपशय और संप्राप्ति के ल For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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