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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५५२). अष्टांगहृदय । अ०८ अर्शमें अनुलोमनका विधान । । वंक्षणाश्रित आनाह, पिच्छास्राव, गुदा का विड्वातकफपित्तानामानुलोम्ये हि निर्मले | शोफ, अधोवायुकी विवद्धता, मलकी रुकावट गुदे शाम्यति गुद्ञा पावकश्चाभिवर्धते।। तथा बार वार अर्शकी उत्पत्ति ये सब रोग अर्थ-अधोवायु, मल, कफ और पित्त नष्ट होजाते हैं। फै अनुलोमनसे गुदा निर्मल होजाती है और ___ यहां जलका वर्णन नहीं किया गयाहै, गुदाके निर्मल होनेसे गुदांकुर शांत होजाते तथापि चौगुना जल डालना अवश्य है,प्रथांहैं और आग्नि भी प्रदीप्त होजाती हैं विड़ तरमें कहा भी है, स्नेहसक्षीरमांसाद्यैः पाको वातकफपित्तादि के अनुलोमन करनेवाले यत्रेरितःकचित् । जलं चतुर्गुणं तत्र बीजाअन्नपानादि और औषध का सेवन करना दानार्थमावपेत् । न मुंचंति रसं द्रव्यं क्षीराचाहिये। दिभिरुपस्कृतम् । सम्यक् पाको न जायेत अर्शमें अनुबासन ।। उदावर्तपरता ये ये चात्यर्थ विरूक्षिताः ॥ तर | तस्मात्तोयं बिनिःक्षियेत् । विलोमवाताःशूलार्तास्तविष्टमनुवासनम्। निरूह का प्रयोग । अर्थ-जो अशरोगी उदावर्त रोगसे पी- | निरूहं वा प्रयुजीत सक्षीरं पांचमूलिकम् ॥ डितहै, जो अत्यन्त रूक्षहै, जो विलोमगामी समूत्रस्नेहलवणं कल्कयुक्तं फलादिभिः। वात और शूलसे पीडितहै, उन्हें अनुवासन अर्थ-पंचमलके क्वाथ में मसान भाग वस्ति देना हितहै। दूध तथा अल्प परिमाण में गोमूत्र, तेल .. अनुवासन की विधि । और नमक मिलाकर तथा पूर्वोक्त मेनफल पिप्पली मदनं बिल्वंशताद्वा मधुकं वचाम् | प्रभृति का कल्क डालकर निरूहण वस्ति कुष्ठं शुठी पुष्कराख्यं चित्रकं देवदारु च। | देनेसे अनुवासन वस्तिके समान गुण होताहै। पिष्टबा तैलं विपक्तव्यं द्विगुणक्षीरसंयुतं ॥ रक्तार्श का वर्णन । अर्शसां मुढबातानां तच्छेष्ठमनुवासनम्। गुदनिःसरणं शूलं मूत्रकृच्छं प्रवाहिकाम् ।। अथ रक्तार्शसां वीक्ष्य मारुतस्य कफस्य वा कट्यरुपृष्ठदौर्वल्यामानाहं बंक्षणाश्रयं ।। अनुबंधं ततः स्निग्धं रूक्ष वा योजयेद्धिममू पिच्छानावं गुदे शोफ वातव!विनिग्रहम् अर्थ-रक्ताशे में पित्त का नित्यसंबंध उत्थानं बहुशो यच्च जयेत्तच्चोनुबासनात् । होने परभी कभी वायु और कभी कफका अर्थ-पीपल,मेनफल,वेलगिरी,सौंफ,मुलहटी, | अनुबंध होता है । इसलिये वायुका अनुबंध बच, कूठ सौंठ, पुष्करमूल, चीता, देवदारु, । देखकर स्निग्ध औषधादि और कफका इनको पीसकर दूना दूध डालकर तेल पकावै अनुबंध देखकर रूक्ष औषधों का प्रयोग इस तेलको अनुबासन वस्ति देनेसे अर्शरोगी करना उचित है परंतु दोनों चिकित्साओं की मूढवात, गुदनिःसरण ( गुदनाडी का में ही पित्त के अत्यन्त सान्निध्य से शीतवाहर निकलना ] शूल, मूत्रकच्छू, प्रवां- क्रिया करनी चाहिये, ऊष्णाक्रिया न करनी हिका, कमर, ऊरु और पीठकी दुर्वलता, | चाहिये । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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