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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७०८) अष्टांगहृदय । . अ. ४ - अर्थ-सेंधेनमक के डेले को लाल गरम । देवदारु, कायफल, सोंठ, पुष्करमूल, मेदा, कराके घी में बुझावै, इस घृत के सेवन से चव्य, चीता, कचूर, बिडंग, अतीस, श्यामा, वातरोग दूर होजाते हैं । हरेणु, नीशिनी, शालपर्णी, बेलगिरी, अज• पौष्टिक अनुवासन । मोद, पीपल, दंती और रास्ना इन सबको जीवंती मदन भदा श्रावणी मधुकं बलाम। समान भाग ले, इनके साथ अरंड का तेल शतावर्षभको कृष्णां काकनासा- वा तिल का तेल वा अरंड और तिल का - शतावरीम् ॥ ५९ ॥ तेल मिलाकर पकाये । यह अनुवासन वस्ति स्वगुप्तां क्षीरकाकोली कर्कटाख्यां शठीं वचाम् ।। कफरोगनाशक, वर्म, उदावर्त, गुल्म, अर्श, पिष्ट्वा तैलघृतंक्षीरे साधयेत्तञ्चतुर्गुणे ॥ प्लीहा, प्रमेह, आढयवात, आनाह और वृहणं वातपित्तघ्नं बलशुक्रानिवर्धनम् ।। अश्मरी इन सब रोगों को शीघ्र नष्ट कर रजःशुक्रामयहरं पुत्रीयमनुवासनम् ६१ ॥ | देती है। - अर्थ-जीवती, मेनफल, मेदा, श्रावणी, कफनाशक तेल मुलहटी, खरैटी, सौंफ, ऋषक, पीपल, " साधितं पंचमूलेन तैलं बिल्वादिनाऽथवा काकजंघा, सितावर, केंच, क्षीरकाकोली कफघ्नं कल्पयेत्तैलं द्रव्यैर्वा कफघातिभिः॥ काकडासांगी, कचूर, बच, इन सबको पी- फलेरष्टगुणश्चाम्लैः सिद्धमन्यासन कफे। सकर चौगुने दूध में मिलाकर घी और तेल । अर्थ-बिल्वादि पंचमूल अथवा कफको पकायै । यह अनुवासन वस्ति वृहण नाशक द्रव्यों के साथ में अठगुनी कांजी वातपित्तनाशक, बल, वीर्य और अग्नि को | आदि के साथ सिद्ध किया हुआ तेल कफ बढानेवाली, रज और वीर्य संबंधी रोगों को | में सिद्ध प्रयोग है। दूर करने वाली, और पुत्रोत्पादन में हित. तीक्ष्णादि वस्ति । कारी है। | मृदुवस्तिमडीभूतेतीक्ष्णोऽन्योबस्तिरिष्यते तीक्ष्णैर्विकर्षितः स्निग्धोमधुरः शिशिरोमृदुः अन्य अनुवासन । सैंधव मदनं कुष्टं शताहा निचुलो वचा। ___अर्थ-मधुस्निग्धशीतलात्मक मृदु वस्ति. हीबेरं मधुकं भार्ग देवदारुसकटफलम् ।। के जडीभूत होने पर अर्थात् कोष्ठही में नागरं पुष्करं मेदा चविका चित्रका शठी। स्थित होने पर तीक्ष्ण वस्ति का प्रयोग विडंगातिविषा श्यामा हरेणु लिनी करे | गोमूत्रादि तीक्ष्ण वस्तियों से कोष्ठके स्थिरा ॥ ६३ ॥ बिल्वाजमोदचपला दन्तीरामाच तैःसमैः विकर्षित होने पर स्निग्ध मधुर और शीतल साध्यमेरण्डतलं वा तैलं वा कफरोगनुत् ॥ मृदु वस्ति का प्रयोग करना चाहिये । पोदावर्तगुल्मार्शःप्लीहमेहाढयमारुतान् वस्तिको मदु तीक्ष्णत्व । पानाहमश्मरी चाशु हन्यात्तदनुवासनम् ॥ तीक्ष्णत्वं मूत्रपाल्वग्निलवणक्षारसर्षपैः । . अर्थ-सेंधानमक, मेनफल, कूठ, सौंफ, । प्राप्तकालं विधातव्यं घृतक्षीरस्तु मार्दवम् ॥' जलवेत, बच, नेत्रत्राला, मुलहटी, भाडंगी, | अर्थ-उचित काल का विचार करके - For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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