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कल्पस्थान भाषाटीकासमेत ।
(७०७ ]
तत्पयः फलवैदेहीकल्फदिलवणान्वितम् ॥ | गुडूच्यैरण्डभूतीकमार्गी बृषकसहिषम् ॥ ससितातैलमध्वाज्यो बस्तिर्योज्यो- शतावरी सहचरं काकनासां पलांशकम् ।
रसायनमू। यवमाषातसीकोलकुलत्थान्प्रस्तोन्मितान् व्यायाममथितोरस्कक्षीणद्रियबलौजसाम् । वहे विपाच्य तोयस्य द्रोणशेषेण तेन च । विवद्धशुक्रबिण्मूत्रखुडवातविकारिणाम् । पचेत्तैलाढकं पेप्यैर्जीवनीयैः पलोन्मितः ॥ गजवाजिरथक्षोभभग्नजरितात्मनाम् ५१ | अनुवासनमित्येतत्सर्ववातविकारनुत्। पुनर्नवत्वं कुरुते वाजीकरणसत्तमः।
अर्थ-अब हम यहां से सपरिहार वस्तिअर्थ-गोह, न्यौला, बिल्ली, सेह चूहा
गों का वर्णन करते हैं, ये दोषों को नाश इनका मांस और पंचमूल इनको अलग
करनेवाली होती है । दशमूल,खरैटी,गस्ना, अलम दस पल लेकर धके साथ पकावै ।
असगंध, पुनर्नवा, गिलोय, अरंड की जड़, फिर इसमें मेनफल और पीपल, सेंधानमक
अजवायन, भाडंगी, अडूसा, रोहिषतृण, और विडनमक पीसकर मिलादे,तथा मिश्री,
सितावर, कुरंटा, काकजंघा, प्रत्येक एक तेल, शहत और घी मिलाकर वस्तिकी
पल, जौ, उरद, भलसी, बेर, कुलथी, प्र. कल्पना करै, यह वस्ति रसायन है । इसके त्येक दो पल इन सबको एक द्रोण जल में प्रयोग से व्यायाम से मथित वक्षःस्थलवाला पकावै, जब चौथाई शेष रहजाय तब उतार क्षीण इंद्रिय बल और ओजवाला, शुक्र
| कर छानले । और इसमें एक आढक तेल विष्टा मूत्र की विवंधतावाला खुडवात रोगी,
तथा एक एक पल जीवनीय गणोक्त द्रव्य तथा हाथी, घोडा, रथ, इनकी सवारी से
| पीसकर डालकर मिलादे । यह अनुवासन बर्जरित देहवाला फिर नवीनता को धारण
वस्ति सब प्रकार के वातरोगों को दूर करने. करता है । यह श्रेष्ठ वाजीकरण औषध है।
वाली है। केंचकीफली के साथ पथ्य । ।
आनूप जीवों की वसा । सिद्धेन पयसा भोज्यमात्मगुप्तोटेक्षुरैः ५१ |
अनूपानां बसा तद्वजीवनीयोपसाधिता। अर्थ-केंच के बीज,चिरमिठी और ताल
___अर्थ-जीवनीय गणोक्त द्रव्यों के साथ, मखाने के साथ सिद्ध किये हुए दूधकी वस्ति
पकाई हुई आनूप जीवों की चर्बी की वस्ति स्नेहवस्ति।
पूर्ववत् गुणकारक होती है।
अन्य तैल। स्नेहांश्च यंत्रणान् सिद्धानिसद्धद्रव्यैः
प्रकल्पयेता| शतावाचेरिविल्वाम्लस्तैलं सिद्धंसमीरणे अर्थ-बहुत से सिद्ध द्रव्यों के साथ अर्थ सोंफ, कंजा और कांजी इन से यंत्रणारहित स्नेहवस्ति की कल्पना करै। सिद किये हुए तेल की अनुवासन बस्ति
. अन्यस्नेह वस्ति। वातनाशक होती है । "दोषघ्नाः सपरीहारावश्यते स्नेहयस्तयः |... अन्य घृत प्रयोग। शमूलं पला रास्तामश्वगंधा पुनर्नवाम् । सैंधवेनाग्निवर्णेन वप्तं वाऽनिलजिद घृतम् ॥
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