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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३५६) अष्टांगहृदय । अ० १ अर्थ-विषम संज्ञक ज्वरका प्रारंभ,क्रिया अर्थ-दोष मेदोवाही नाडी में स्थित होऔरं काल विषम होता है, तथा यह ज्वर कर तृतीयक नामवाले विषम ज्वरको उत्पन्न दीर्घकालानुबंधी भी होता है । विषमारंभ, करता है । यह ज्वर बीच में एक दिनका यथा:-यह कभी मूट से, कभी पीठसे | अंतर देकर होता है, इसे लोक में तिजारी और कभी जांघ से उत्पन्न होता है । वि. भी कहते हैं । तृतीयक ज्वर तीन प्रकार षमक्रिया, यथा:-कभी शीत से, कभी का होता है, यथा-वातपित्ताधिक्य, कफ दाह से । विषमकाल, यथा-कभी पूर्वान्ह | पित्ताधिक्य और वातकफाधिक्य | इनमें से में, कभी मध्यान्ह में, कभी अपरान्ह में वातपिताधिक्यवाला तृतीयक ज्वर प्रथम और कभी अर्द्धरात्र में उपस्थित होता है । सिर से उत्पन्न होता है, ऐसेही कफपित्तारक्ताश्रयदोष को सततज्वरकरत्व । धिक्य वाला त्रिक से उत्पन्न होकर वहां दोषो रक्ताश्रयःप्रायः करोति सततं ज्वरम्॥ | पीडा करता है । वातकफाधिक्य वाला ज्वर अहोरात्रस्य स द्वि स्यात् पीठ से त्रिक पर्य्यन्त भाग में उत्पन्न होकर अर्थ-प्रायः रक्ताश्रितदोष सततज्वर को | पीठ और त्रिक में वेदना करता है । उत्पन्न करता है । यह ज्वर अहोरात्र में दो बार होता है अर्थात् दिन में एक बार चतुर्यकज्वर की उत्पत्ति । रात्रि में एक बार, अथवा कभी दिन में दो | चतुर्थको मले मेदोमज्जास्थन्यतमस्थिते । मज्जस्थ एवेत्यपरे प्रभावं स तु दर्शयेत् ॥ बार अथवा रात्रिमें दो बार कभी दोनों में द्विधाकफेनजंघाभ्यां स पूर्व शिरसोऽनिलात् दो दो बार होता है। ____ अर्थ-दोष, मेदा मज्जा वा अस्थि इन अन्येा विषमज्वर के लक्षण । तीनों धातुओंमें से जब किसी एक धातु में सकृदन्येाराश्रितः। आश्रय करलेता है तब वह चर्तुथक नामक तस्मिन्मांसवहा नाडीः अर्थ-दोष मांसवाही नाडी में आश्रित विषमज्वर को उत्पन्न करता है, इसे लोकमें होकर अन्येदु वा अन्येदुष्क नामक विषम चौथैया कहते हैं । अन्य आचार्यों के मत ज्वरको उत्पन्न करता है । यह ज्वर दिन में केवल मज्जा का आश्रय कर लेनेही पर रात में एक बार होता है अर्थात् कभी दिन दोष चतुथक ज्वर को उत्पन्न करता है, में एक बार अथवा कभी रात्रिमें एक बार यह ज्वर दो दिन बीच में देकर आता है, होता है। अर्थात् पहिले दिन आकर दो दिन छोड़कर चौथे दिन आता है । चार्तुथक ज्वर दो तृतीयक ज्वर । .. मेदोनाडीस्तृतीयके ॥ ७० ॥ प्रकार का प्रभाव दिखाता है अर्थात् जो प्राही पित्तानिलान्मूलस्त्रिकस्य कफपित्तताः | कफ से उत्पन्न होता है वह प्रथम जघा से सपृष्ठस्यांनिलकफास चैकाहांतरः स्मृतः॥ उत्पन्न होकर सब शरीर में फैल जाता है For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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