SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 688
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म.११ चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत । (५९१ । कर गरम जल के साथ, अथवा कटेरी और | विशुद्धि के निमित्त बलवान् पुरुषको उचित गोखरू के काढ़े में सिद्ध की हुई यवागू गुड | है कि तृप्ति पर्यन्त पौष्टिक द्रव्य और मुर्गे की राब के साथ, अथवा वीरतरादि गण के | के मांसरस का यथेच्छ सेवन करे और काढे अथवा मुर्गे के मांस रस के साथ सिद्ध मददायिनी कामिनी गणों के साथ उपकी हुई पेया अथवा वीरतरादि गणोक्त भोग करे। द्रव्यों के काढे की भावना दिया हुआ अश्मरी के इलाज में राजाज्ञा । शिलाजीत सेवन करै । सिद्धरुपमैरोभिन चेच्छान्तिस्तदा भिषक ___ अन्य उपाय । इति राजानमापृच्छय शत्रं साध्वषचारयेत् मावा निगद पीत्वा रथेनाश्वन वा ब्रजन् । ___ अर्थ-ऊपर कही हुई चिकित्साओद्वारा शीघ्रवेगेन संक्षोभात्तथाऽस्य च्यवतेऽश्मरी यदि अश्मरी की शांति नहो तो राजाकी आज्ञा ___ अर्थ-पुराना मद्य पीकर शीघ्रगामी लेकर शस्त्रकर्म में प्रवृत्त होवै । रथ में बैठकर वा घोडे पर चढकर चलने प्रश्न की रीति । से सक्षोभ उत्पन्न होने के कारण पथरी आक्रियायां ध्रुवो मृत्युः क्रियायां संशयोनिकल जाती है। भवेत् ॥४४॥ निश्चितस्याऽपि वैद्यस्य बहुशःअन्य उपाय । सिद्धकर्मणः। सर्वथा चोपयोक्तव्यो वर्गो वीरतरादिकः ॥ अर्थ-हे राजन् ! अश्मरीरोग में शस्त्र रेकार्य तैल्वक सर्विस्तिकर्म च शीलभेत् । कर्म न करने से रोगी की मृत्यु अवश्य विशेषादुत्तरान् बस्तीन अर्थ-वीरतरादि गणोक्त द्रव्यों का । हागा आर शस्त्रकर्म करने से शास्त्रार्थवित् काढा पेया और जलाद द्वारा सब प्रकार और अनेक बार सिद्धकर्म बैद्यको भी रोगी उपयोग में लाना अश्मरीमें हितकारक है। के जीने न जीने में संदेह होता है । इस विरेचन के लिये तैल्यकघृत का प्रयोग रीति से राजाकी अनुमति लेकर नीचे लिखी करना चाहिये वस्तिकर्म में विशेष करके | रीति से शस्त्रकर्म में प्रवृत होना उचितहै । उत्तर वस्ति का प्रयोग करना हितकारी है। शस्त्रकर्म में कर्तव्य । शुक्राश्मरी की चिकित्सा। अथाऽतुरमुपस्निग्धशुद्धीषश्च कर्शितम् ॥ शुक्राश्मर्या च शोधिते ॥४१॥ अव्यक्तस्विन्नवपुषमभुक्तं कृतमंगलम् । तैर्मत्रमार्ग बलवान् शुक्राशयविशुद्धये ।। आजानुफलकस्थस्य नरस्यांके व्यपाश्रितम् पुमान् सुतृप्तो वृष्यागां मांसाना पूर्वेण कायनोत्तानं निषण्णं वनचुभले । ततोऽस्याऽऽकुंचितेजानुकूपरे बाससा दृढम् कुक्कुटस्य च ॥ ४२ ॥ सहाश्रयमनुष्येण बद्धस्याऽऽश्वासितस्य च। कामं सकामाः सेवेत प्रमदा मदायिनीः। नाभः समतादभ्यज्यादधस्तस्याश्च___ अर्थ-शुक्राश्मरी में उत्तरवस्ति द्वारा वामतः॥४८॥ मूत्रमार्ग के शुद्ध होने पर शुक्राशय की मृदित्वा मुष्टिना काम यावदश्मर्यधोगता। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy