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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । ६९०) अष्टामहृदय । अजमोदाकदवस्य मूलं बिल्वस्य चौषधम् । अथवा ब्राह्मी डालकर सिद्ध किया हुआ दूध पीतानि शर्करां भिंद्यः सुरयोष्णोदकेन वा ॥ पीब, अथवा हरीतकी की गुठली वा पुन__ अर्थ-ब गुला, ऊंट और गधे की आस्थ नवा से सिद्ध किया हुआ दूध पीवै, अथवागोखरू, तालपत्री, अजमोद, कदंवकी जड, मयूरशिखा की जड चांबलों के पानीके माथ वेलगिरी और सोंठ इनके कल्क को मद्य वा | पान करे और दूधके साथ अन्नका पथ्यकरै गरम जल के साथ पान करने से शर्करा ___मूत्राघात में क्रियाविभाग | रोग जाता रहता है। मूत्राघातेषु विभजेदतः शेषेष्वपि क्रियाम् ॥ अश्मरी पर चूर्ण । अर्थ-मूत्रातीतादि बचे हुए मूत्राघात रोगों नृत्यकुंडकबीजानां चूर्ण माक्षिकसंयुतम् । में उन चिकित्साओं की विवेचना करके दे. अविक्षीरेण सप्ताह पीतमश्मरिपातनम् ॥ ना चाहिये जो ऊपर कहींगई हैं । अर्थ-तुवरी के बीजों का चूणे शहत में मिलाकर खाय उपर से भेडका दूध पीवै सब प्रकारके मूत्राघात की चिकित्सा। बृहत्यादिगणे सिद्धं द्विगुणीकृतगोक्षुरे । इस तरह सात दिन करने से अश्मरी रोग तोयं पयो वा सर्पिो सर्वमूत्रविकारजित् जाता रहता है। __ अर्थ-वृहत्यादि गणोक्त द्रव्य और दुगु__अश्मरी पर क्वाथ । ना गोखरू इनका काढा अथवा इनके साथ काथश्च शिपमूलोत्थः कदूष्णोऽश्मरिपातनः सिद्ध किया हुआ द्ध बा घृत सव प्रकारके अर्थ-सहजने की जडका काढा गरम मसाविमा कोटा देता। गरम पीने से अश्मरी रोग दूर होजाता है। देवदादि पान । अश्मरी पर क्षार । देवदारुं धनं मृा यष्टी मधु हरीतकीम् । तिलापामार्गकदलीपलाशयवसंभवः। ३१ । मूत्राघातेषु सर्वेषु सुराक्षीरजलैः पिवेत् ॥ क्षारःपेयोऽविमूत्रेण शर्करास्वश्मरीषु च ।। अर्थ-देवदारु, नागरमोथा, मर्वा, मुलअर्थ-तिल, ओंगा, केला, ढाक और हटी और हरीतकी इनमें से किसी एक द्रजो इनका क्षार भेडके दूध के साथ पीनेसे व्यको सुरा, क्षीर वा जलके साथ पानकरने शर्करा और अश्मरी जाते रहते हैं। | से सब प्रकार के मूत्राघातरोग दूर होजाते हैं। अश्मरी पर कपोतवंका। धन्वयासरसादिपान । कपोतबंकामूलवा पिवेदेकं सुरादिभिः॥ रसं वा धन्वयासस्य कषायं ककुभस्य वा । तसिद्धं वा पिवेत्क्षीरं वेदनाभिरुपद्रुतः। सुखांभसावा त्रिफलांपिष्टां सैंधवसंयुताम् हरीतक्यास्थिसिद्धं वा साधितं वापुनर्नवैः॥ ब्याघ्रीगोक्षुरककाथे यबाणू वा सफाणिताम् क्षीरानभुग्बहिशिखामूलं वा तंडुलांवुना । काय धीरतरादेवी तात्रचूडरलेऽपि वा ॥ अर्थ-अश्मरी और शर्करा रोग में वेद- अद्याद्वीरतराद्येन भावितं वा शालाजतु । ना होती हो तो केवल ब्राह्मी की जड पीस | अर्थ-जवासे का रस, वा अर्जुन का कर सुरा वा उष्ण जलके साथ पान करै, ] क्वाथ, अथवा त्रिफला और सेंधानमक पीस For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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