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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Singer | ( १९२ ] तैला के वर्धितनखे तर्जनीमध्यमे ततः ॥ अदक्षिणे गुर्दे ऽगुल्यो प्रणिधायाऽनु सेवनीम् आसाद्य वलयं नाभ्यामश्मरीं गुदमेढ्योः ॥ कृत्वांतरे तथा बस्ति निर्बलीकमनायतम् । उत्पीडेयद्गुलिभ्यां यावद्ग्रंथिरिवोन्नतम् शल्यं स्यात्सेवनी मुक्त्वा यवमात्रेण पाटयेत् अश्ममानेन न यथा भिद्यते सा तथा हरेत् समग्रं सर्पवक्रेण स्त्रीणां बस्तिस्तु पार्श्वगः । गर्भाशयाश्रयस्तासां शस्त्रमुत्संगवत्ततः । म्यसेद्तोऽन्यथा ह्यासां मूत्रस्स्रावी प्रणोभवेत् | मूत्रप्रसेकक्षरणान्नरस्याऽप्यपि चैकधा बस्तिभेदोऽश्मरीहेतुः सिद्धिं याति न | अ० ११ | वांई ओर की सीमन तक प्रवेश करदे और नाभिकी बलि के पास पहुंचाकर अश्मरी को गुदा और लिंग के बीच में लाने और वस्तिस्थानको निर्बल और अविस्तीर्ण करके दोनों उंगलियों द्वारा उस समय तक उत्पीडित करे, जबतक अश्मरी गांठ के सदृश ऊंची नहो ऊंची होनेपर सेवनी को जौके तुल्य छोड कर अश्मरी की जगह के बराबर नश्तर ल. गा देवे फिर सर्पमुख यंत्रसे पकडकर संपूर्ण पथरी को बाहर ऐसी रीतिने खींच ले कि टूटने न पावै । स्त्रियों की बस्ति गर्भाशय के पास पार्श्वभाग में होती है, इसलिये स्त्रियों के नीचे के भागमें शस्त्र लगावे, ऐसा न करने से ब्रणमें होकर मूत्र आने लगेगा । वस्तिके विदीर्ण होनेसे पुरुषों के भी मूत्रस्त्रावी व्रण होजाता है । एक बार अश्मरी निकालने के निमित्त जो वस्तिभेद किया जाता है वह साध्य होता है परन्तु यदि दूसरी बार वस्तिभेदन किया जाय तो असाध्य होता है । 1 तु द्विधा । अर्थ - जिस रोगी की पथरी निकालनी हो उसको स्नेहक्रिया द्वारा स्निग्ध और विरेचनादि शोधनक्रिया द्वारा शुद्ध तथा लंघनादि द्वारा थोडा कर्शित करके नाभिसे नीचे स्नेह मर्दन करे और स्वेदन करने के पीछे बिना भोजन कराये ही स्वस्तिवाचनादि कर्म करे । फिर रोगी को एक ऐसे आदमी की गोदी में बैठावै जो जानु तक पांव फैलाये हो, रोगी को वस्त्र के बंडल पर ऐसी रीतिसे वैठावे कि उसका ऊपरवाला देह ऊंचाहो, फिर रोगी की जानु सकोडकर कोहनी तक लेजाय और उनको उस मनुष्य समेत जिसकी गोदी में बैठा है एक वस्त्र से कसकर बांदे | रोगी को आश्वासजनक वातों से ढाढस देकर नामिके नीचे तेल चुपडकर घांईओर को हाथसे दाव दाव कर पथरीको नीकी और सरका देवे । तत्पश्चात बायें हाथकी बडे२ नखोंवाली तर्जनी और मध्य, मा ऊंगली को तेल में भिगोकर गुदाके मीतर रोगी को स्नानादि ॥ विशल्यमुष्ण पानीयद्रोण्यां तमवगाहयेत् ॥ तथा न पूर्यतेऽस्त्रेण वस्तिः पूर्णे तु पडियेत् मेढ्रांतः क्षीरिवृक्षांबु अर्थ- ऊपर लिखी हुई रीतिसे पथरी को निकाल कर रोगी को गरम जलसे भरी हुई नादमें बिठा देवे, ऐसा करने से वस्तिमें रुधिर न भर सकैगा । ऐसा करनेपर भी वस्तिमें रक्त भरजाय तो वड, गूगल, पीपल आदि दूधवाले वृक्षों के क्वाथकी लिंगमें उत्तर वस्ति देवे ! | | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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