________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
( ९० )
८८
www. kobatirth.org
अष्टांगहृदये ।
द्रव्य की प्रधानता ।
'द्रव्यमेव रसादीनां श्रेष्ठं ते हि तदाश्रयाः । पंचभूतात्मकं तत्तु क्ष्मामधिष्ठाय जायते ॥ १ ॥ अबुयोन्यग्निपवननभसां समवायतः । तन्निर्वृत्तिर्विशषेश्च व्यपदेशस्तु भूयसा ॥ २ ॥
वीर्य, विपाकादि ये
अर्थ - रस, सब द्रव्य के आधीन है इसलिये द्रव्य ही प्रधान है । ये द्रव्य पंचभूतात्मक हैं अर्थात् द्रव्य
T
पृथ्वी के आधार से उत्पन्न होता है जल उसकी उत्पत्ति का प्रधान कारण है, अग्नि वायु और आकाश ये भी उसकी उत्पत्ति के समवायि कारण हैं । इससे यह हुआ कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये पंचभूत सव द्रव्यों के समवायी कारण
हैं
| परन्तु इन भूत पदार्थों की अधिकता के अनुसार द्रव्यों में विशेषता होती है, जैसे जिस द्रव्य में पृथ्वी की अधिकता है बह पार्थिव. जिस में जल की अधिकता है वह जलीय इत्यादि और भी जानना चाहिये ।
द्रव्य को अनेक रसत्व |
तस्मान्नैकरसं द्रव्यं भूतसंघातसंभवात् । नैकदोषास्ततो रोगास्तत्र व्यक्तो रसः स्मृतः॥ अभ्यक्तोऽनुरसः किंचिदंते व्यक्तोऽपि चेष्यते
।
अर्थ - पंचभूत के संयोग से द्रव्यों की उत्पत्ति होती है, ये द्रव्य एकरस - विशिष्ट नहीं होते हैं किन्तु अनेक रसों से युक्त होते हैं । यहां भी अधिकता के अनुसार कोई मधुर, कोई अम्ल, कोई लवण, कोई कटु और कषाय होते हैं ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अ० ९
जिस द्रव्य में जो रस जिव्हा द्वारा स्पष्ट रूप
से मालूम होता है वह द्रव्य उसी रस से युक्त कहलाता है और जो रस रसनेन्द्रिय द्वारा स्पष्ट रूप से मालूम नहीं होता है उसे अनुरस कहते हैं तथा जो रस व्यक्त रसास्वादन के थोडी देर पीछे मालूम होता है उसे भी अनुरस कहते हैं क्योंकि सब द्रव्य एकरसविशिष्ट नहीं है इसलिये सब रोग भी एक दोष विशिष्ट नहीं होते । जिस हेतु से मधुरादिरसों के कारण बातादि दोष कुपित होते हैं । सुतरां सम्पूर्ण रोग त्रिदोष के कोप में अनुभव होते हैं। तब जिस रोग में जिस दोष की अधिकता होती है वह रोग उसी दोष के नाम से कहलाता है ।
रसों में गुर्वादि गुण ! गुर्वादयो गुणा द्रव्ये पृथिव्यादौ रसाश्रये ॥ रसेषु व्यपदिश्यंते साहचर्योपचारतः ।
अर्थ - पृथिव्यादि पंचभूतात्मक द्रव्य रसाश्रय है. इन मधुरादिरसों में साहचर्य से गुर्वादि गुण भी है । जैसे जिस द्रव्यमें मधुर रस है, उसी में गुरु गुण भी है, जो द्रव्य अम्ल है उस में लघु गुण 1
For Private And Personal Use Only
पार्थिव द्रव्य के गुण ।
तत्र द्रव्यं गुरु स्थूलं स्थिरगंधगुणोल्बणम् ॥ पार्थिवं गौरवस्थैर्य संघातोपचयावहम् । अर्थ - पंचभूतात्मक द्रव्यों में गुरु, स्थूल, कठिन और गंधगुणबहुल हैं, इनके द्वारादेह में गुरुता, स्थिरता, निविडता और पुष्टि संपादन होती है ।