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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(९१)
जलीय द्रव्य के गुण । द्वारा जगत में ऐसा कोई द्रव्य दिखाई नहीं द्रवशीतगुरुस्निग्धमंदसांगरसोल्बणम् ॥६॥ देता है जो औषधका काम न देता हो अर्थात् मान्यं स्नेहनविष्यदक्लेदप्रह्लादबंधकृत् ।। द्रव्यमात्र औषध का काम देते हैं।
अर्थ-जलात्मक द्रव्य द्रव, शीतल, गुरु, । द्रव्यों का अधोर्ध्वगामित्व । स्निग्ध, मृदु, घन और रसगुण बहुल होते द्रव्यमूर्ध्वगमं तत्र प्रायोऽग्निपवनोत्कटम् । हैं, ये देहमें स्निग्धता, स्राव, क्लेद, आल्हाद अधोगामि च भूयिष्टं भूमितोयगुणाधिकम् आरै मलका विवंध करते हैं ।
इति द्रव्यं रसान्भैदैरुत्सरघोपदेश्यते ।
अर्थ-जिन द्रव्यों में अग्नि और वायुका आग्नेय द्रव्य ।
भाग अधिक होता है वे प्रायः ऊर्ध्वगामी रूक्षतीक्ष्णोणविशदशूभरूपगुणोल्बणम् ॥ आग्नेयंदाहभावर्णप्रकाशपचनात्मकम् ।।
होते है । जिन में पृथ्वो और जलका भाग अर्थ-अग्नेय द्रव्य रूक्ष, तीक्ष्ण, उष्ण, अधिक होता है वे प्रायः अधोगामी होते हैं विशद ( सूक्ष्म लांतों में जाने वाले ) यहां तक द्रव्य के विषय में जो कुछ कहना
और रूप गुण बहु के होतेहैं ये दाह, कान्ति | था कहा गया है अब रसों के तिरेसठ भेदों वर्ण और पाककारक होते हैं ।
का वर्णन करेंगे। पवनात्मक दृव्य ।
वीर्य की प्रबलता। वायव्यं रूक्षविशदं लधुस्पर्शगुणोल्वणम् ।८। वीर्य पुनर्वदंत्येके गुरुस्निग्धहिमं मृदु ।१२। रौश्यलाघववेशद्यविचारग्लानिकारकम् । लघुरूक्षोणतीक्ष्णं च तदेवं मतमष्टधा । अर्थ-वायव्य द्रव्य रूक्ष, विशद, लघु, अर्थ-किसी किसी आचार्य के मतमें द्रव्याऔर स्पर्शगुणबहुल होते हैं, ये रूक्षता श्रित गुरु,स्निग्ध,हिम,मृदु, लघु, उष्ण, रूक्ष, लाचब, निर्मलता और ग्लानि उत्पन्न करते और तीक्ष्ण इन गुणोंको ही वीर्य कहते हैं,
इस लिये उन के मतानुसार वीर्य आठ प्रकार आकाशात्मक द्रव्य।
का होता है। नामसं सूक्ष्मविशदलघुशब्दगुणोल्बणम् ।९।।
चरकाचार्यका मत । सौषिर्यलाघवकरं
घरकस्त्वाह वीर्य तद्येन या क्रियते क्रिया ॥ जगत्येवमनौषधम् । नावीर्य कुरुते किंचित्सर्वा वीर्यकृताहि सा। मकिंचिद्विद्यते द्रव्यं वशान्नानार्थयोगयोः१० अर्थ-वायके संबंध महर्षि चरकाचार्य भी
अर्थ-आकाशीय द्रव्य सूक्ष्म, बिशद, । कहते हैं कि जिसद्रव्यके जिसस्वभावसे कोई लघु और शब्दगुणबहुल होते हैं ये पिंडा- क्रिया करने में आती है उस स्वभावका नाकार वस्तु को सछिद्र करनेवाले और लाघ- म ही बीर्य है द्रव्यसे जो कर्म होता है उसी वता करनेवाले हैं । अतएव अनेक प्रकार कर्मको वीर्यकृत समझना चाहिये । वीर्यहीन के प्रयोजन और अनेक प्रकार की युक्तियों द्रव्य कोई कर्म नहीं करसक्ते हैं ।
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