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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ( ९२ ) www.kobatirth.org अष्टांगहृदये । मुर्वादिकमंवीर्यकाम तिपादन । गुर्वादिष्वेव वीर्याख्या तेनान्वर्थेति वर्ण्यते ॥ समग्रगुणसारेषु शक्त्युत्कर्षविवर्तिषु । व्यवहाराय मुख्यत्वाद्बहुग्रग्रहणादपि ॥ १५ ॥ अर्थ - 3 -अन्य आचार्यो का भी यही मत है। कि इन्हीं गुर्वादिक आठ गुणों को ही वीर्यकहना चाहिये कारण यह है कि संपूर्ण गुण आठ गुणही सारभूत और अधिक श क्तिशाली होते हैं तथा व्यवहारमें भी ये ही मुख्य और अप्रगण्य हैं इस हेतुसे इन आठ गुणों का ही नाम वीर्य है । रसादिमें अवीर्यत्व | अतश्च विपरीतत्वात्संभवत्यपि नैव सा । विवक्ष्यते राधेषु वीर्य गुर्वादयोद्यतः ॥१६॥ अर्थ- पूर्वोक्त कारणोंसे विपरीत होने पर रसादिमें वीर्य संज्ञा नहीं हो सक्ती है जैसे रसमें सारत्व नहीं है क्योंकि जठराग्नि के संयोगसे अन्यरसकी उत्पत्ति होजाती है परन्तु गुर्वादि में जठराग्नि के संयोग से कुछ अंतर नहीं पड़ता है के त्यों बने रहते हैं इस से रसादिक में वीर्य संज्ञा नहीं है । तु अन्य आचार्यों का मत | उष्णं शीतं द्विधैवान्ये वीर्यमाचक्षतेऽपिच अर्थ - अन्य आचार्य वीर्यको शीत और उष्ण दो ही प्रकार का मानते हैं और इस का युक्ति सहित कारण बताते हैं । सयुक्ति कारण । atercraft द्रव्यमनीषोमौ महाबलौ १७ व्यक्ताव्यक्तं जगदिव नातिक्रामति जातुचित् अर्थ- जैसे स्थूल वा सूक्ष्म कोई पदार्थ ज गतका उल्लंघन नहीं करसक्ता है इसी तरह Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ९ संपूर्ण द्रव्य नानात्मक होनेपर भी महाप्रवल अग्नि और सोम इनदो गुणों का अतिक्रम नहीं करसक्ते हैं इसलिये कुछ द्रव्य उष्णवीर्य और कुछ शीतवीर्य होते हैं, जैसे दूध के साथ मछली नहीं खाना चाहिये । ये दोनों मधुर हैं और इनका पाकभी मधुर है परन्तु एक उष्णवीर्य है और दूसरा शीतवीर्य है इस विरुद्धता के कारण रक्तको दूषित करते हैं । उभयवीर्य के गुण | तत्रो भ्रमतृङ्ग्लानिस्वेद वाहाशुषाकिताः। शर्म व वातकयोः करोति शिशिरं पुनः । ल्हानं जीवनं स्तंभं प्रसादं रक्तपित्तयो: १९ अर्थ- इनमें से उष्णवीर्य भ्रम, पिपासा, ग्लानि, पसीना, दाह, शीघ्रपार्क तथा बात और कफकी शान्ति करते हैं तथा शीतवीर्य आ ल्हाद, बल, रक्तादिकी गतिका अवरोध, रक्तपिant विशुद्धता संपादन करते है ! विपाक का लक्षण । जठरेणाऽश्विना योगाय दुदेति रसांतरम् । रसानां परिणामांते स विपाक इति स्मृतः॥ अर्थ जठराग्नि के संयोग से मधुरादिरसों का परिपाक होकर परिणाम में जो रसान्तर उत्पन्न होता है उसे बिपाक कहते हैं । रसों का विपाक | For Private And Personal Use Only स्वादुः पटुश्च मधुरमस्लोऽस्लं पच्यते रसः तिकोपणकषायाणां विपाकः प्रायशः कटुः २१ अर्थ - मधुर और लवण रसका विपाक मधुर होता है, अम्लका विपाक अम्ल, तथा तीक्ष्ण, कटु और कषाय रसोंका विपाक प्रायः कटु होता है प्रायः शब्दसे जाना जाता है कि कहीं कहीं विपरीत भी होता है ।
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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