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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ९ चिकित्सितस्थान भाषाटीकासभेत। और सौंठ इन सब द्रव्यों को पीसकर चांगेरी अर्थ-कफ के क्षीण होनेपर दीर्घ कालातक वा बेर के रसकी खटाई मिलाकर खल | नुसंधी अतीसार के कारण दुर्वल हुई गुदा तयार करे । इससे कफातिसार नष्ट हो जाताहै में अपने स्थानमें स्थित हुई वायु अवश्य ही अन्य उपाय। प्रवल होजाती है, यह प्रवल हुई वायु शीघ्र क्षीणे श्लेष्माण पूर्वोक्तमम्लं लाक्षादिषट्पलम् ही प्राणों का नाश कर देती है, इसलिये इस पुराणं वा घृतं दद्याद्यवागू मंडमिश्रिताम् । को शमन करने का उपाय शीघ्र करना चा. अर्थ-कफके क्षीण होनेपर गुदशूल और हिये । वायुके शमन करने के पीछे पित्तको गुदभ्रंशमें कहा हुआ घी, यक्ष्मामें कहा हुआ और पित्तको शमन करने के पीछे कफको लाक्षादि षटपलघृत, अथवा यवागू और मं | शमन करना चाहिये । अथवा इन तीनों में डमिश्रित पुराना घी पान करावे । जो बलवान् हो पहिले उसीको जीतना चाहिये - वातकफविवंधमें पिच्छावस्ति । बातनाशक क्रियाओंका वर्णन । वातश्लेष्मविबंधे च स्रवत्यतिकफेऽपि वा। भीशोकाभ्यामपि चलः शीघ्र कुप्यत्यतस्तयोः शूले प्रवाहिकायां वा पिच्छावास्तिः प्रशस्यते कार्या क्रिया वातहरा हर्षणाश्वासनानि च ॥ वचाबिल्वकणाकुष्टशताबालवणान्वितः। अर्थ-वायु और कफके विवंधमें, अथवा ___ अर्थ भय और शोकसे वायु शीबू कुकफका अत्यन्त स्राव होनेपर, शूलवत् बेदना पित हो जाती है, इसलिये इनसे उत्पन्न हुए में, अथवा प्रवाहिका में बच, बेलगिरी, पी अतिसार में बातनाशक क्रिया करनी चाहि. ये तथा भय और शोक की निवृत्ति के लिये पल, कूठ, सौंफ, और नमक मिलाकर पूर्वोक्क पिच्छावस्ति देना चाहिये । होत्पादक और आश्वासजनक कर्म करने चाहिये । कफबातात में अनुवासन । . बिल्वतलेन तैलेन वचाद्यैः साधितेन वा ॥ शांतोदर के लक्षण । यस्योच्चाराद्विना मूत्रं पवनो वा प्रवर्तते। बहुशः कफवाताते कोष्णेनान्वासनं हितम् । दीप्ताग्नेलघुकोष्ठस्य शांतस्तस्योदरामयः " __ अर्थ-कफवातातिसार में बेलगिरी के तेलसे, अथवा वचादि द्वारा सिद्ध किये हुए ___ अर्थ-जव मलके विना अधोवायु और तेलको थोडा गरम करके बारबार अनुवा | मूत्र निकलने लगे, तथा अग्नि प्रदीप्त हो सन देना हितकारी है। और कोष्ठ हलका हो, तव जानलेना चाहि ये कि उदररोग शांत हो गया है । क्षीणकफादि में कर्तव्य । "क्षीणे कफे गुदे दीर्घकालासारदुर्वले ॥ | इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषा अनिलः प्रबलोऽवश्यं स्वस्थानस्थः प्रजायते। टीकान्वितायां चिकित्सितंस्थाने सबली सहसा हन्यात्तस्मात्तं त्वरया जयेत् अतीसारचिकित्सितं नाम वायोरनंतर पित्त पित्तस्याऽनंतरं कफम् । नवमोऽध्यायः । जयेत्पूर्व त्रयाणां वा भवेद्यो बलवत्तमः ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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