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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org अष्टांगहृदय । श्र० ६ • पर्बल और नीम के पत्ते डालकर मूंगका यूप देना चाहिये | जौ का अन्न, तीक्ष्ण कवल, तीक्ष्णनस्य और तीक्ष्ण लेह इनको काममें लाँ | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५२६ ) बीजपूरकमृद्धीका वटवेतसपल्लवान् ६९ ॥ मूलानि कुशकाशानां यष्ट्याहव च जले शुतम् ज्वरोदितं वा द्राक्षादिपचसारांबु वा पिबेत् । अर्थ-पित्तज तृषा में पके हुए गूलरोंका रस, वा उनका काढा वा हिम मिश्री मिला कर पीना हित है । इसी तरह सारिवादि गणोक्त द्रव्योंका रस, काढा वा हिम मिश्री मिकरहित है। अथवा तद्रुणविशिष्ट शीत वीर्य द्रव्यों का पाय खांड और शहत मिलाकर सेवन करना हित हैं । इसी तरह द्राक्षादि मधुररसविशिष्ट द्रव्योंका काढा वा न्यग्रोधादि दूधवाले वृक्षोंकाः शीतकषाय शर्करा और मधुमिलाकर सेवन करना हितहै । तथा विजौरा, किसमिस, बट और वेतके पत्ते, कुशा और कासकी जङ और मुलहटी, जलमें सिद्ध करके यह जल पीने को दे । अथवा ज्वरचिकित्सा में कहा हुआ द्राक्षादि फोट वा रक्तपित्त में कहा हुआ पंचसार शीतकप्राय देना हित है | कफज तृषाकी चिकित्सा | कफोद्भवायां वमनम् र्निबप्रसववारिणा । बिल्वाढकी पंञ्चकोलदर्भपंचकसाधितम् ॥ जलं पिबेद्रजन्या वा सिद्धं सक्षौद्रशर्करम् । मुद्रयूषं च सव्योष पटोली निवपल्लवम् ७२ ॥ वन तीक्ष्णकवलनस्यलेहांश्च शीलयेत् । अर्थ-कफज तृषा में नीम के पत्तों का काथ - पान करके बमन कराना हित है । वेलगिरी अडहर, पंचकोल ( पीपल, पीपलामूल, चव्य चीता और सौंठ, दर्भपंचक इन सब द्रव्यों से सिद्ध किया हुआ जल, अथवा हलदी डालकर सिद्ध किया हुआ जल शहत और शर्करा मिलाकर पीना उचित है । त्रिकुटा | सत्त मंथ कहलाता है । | आज और सन्निपातज तृषा । सर्वैरामाच्च तद्धंत्री क्रियेष्टा वमनम् तथा ॥ त्र्यूषणारुष्करवचाफलाम्लोष्णांबुमस्तुभिः । अर्थ - त्रिदोषज और आमजतृषा में त्रिदोशनाशिनी और आमनाशिनी चिकित्सा करना हित है तथा त्रिकुटा, भिलावे की गुठली, बच, द्वारा अथवा अम्श्वतसे, वा उष्ण जल से वा दही के तोडसे वमन कराना हित हैं। अनात्मज तृषाकी चिकित्सा | अन्नात्ययान्मंडमुष्णं हिमं मंथं च कालावेत, अर्थ - अन्नके विरहसे उत्पन्न हुई तुषा में काल, प्रकृति और सात्म्यके अनुसार उष्णमंड और शीतल मंथ देना चाहिये । वातकफ प्रकृतिसे उष्णमंड, पित्तकफ प्रकृति से उष्णशीत और पित्त प्रकृति से हिंम मंथ का पान करना चाहिये । श्रमजन्यवृषामें कर्तव्य । तृषि श्रमान्मांसरसं मद्यं वा ससितं पिबेत् । अर्थ-- श्रम से उत्पन्न हुई तृषामें मांसरस • अथवा शर्करामिश्रित मद्य हितकारी होता है । आतपजन्य तृषा । आतपात्ससितं मंथं यव कोलांबुसक्तुभिः ॥ सर्वाण्यंगानि लिंपेच्च तिलपिण्याककांजिकैः + सक्तवः सर्पिषाभ्यक्ताः शीतोदकपरि प्लुताः । नातिद्रवो नाति सांद्रो मंथ इत्यभिधीयते । अर्थात् घृतप्लुत ठंडे पानी में मिलाया हुआ, न बहुत गाढा, न बहुत पतला For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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