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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ.६ चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत । (५२७) अर्थ - धूप लगनेसे उत्पन्न हुई तृषा अर्थ-भारी अन्नके भोजनस उत्पन्न में जौ और कुलथी के सत्तू का मंथ खांड हुई तृषामें कंठ पर्ण्यन्त गरमजल पीकर वमन मिलाकर खाना चाहिये । और तिलोंको | करना उचित है । पीसकर कांजी में मिलाकर सब देह पर क्षयज तुषामें कर्तव्य । लेप करना चाहिये । क्षयजायां क्षयहितं सर्व वृंहणमौषधम् ७९ शीतस्नानजन्य तृषा। अर्थ-क्षयसे उत्पन्न हुई तृषामें जो जो शीतनानात्तु मद्यांबु पिबेतृण्मान् गुडांबु वा वृंहण औषध क्षयरोगमें हितकारी है वे सव ___ अर्थ-शीत स्नानके कारण उत्पन्न हुई। इसमें भी हितकारी हैं। तृषामें मद्य वा गुड का शर्वत पीना उचितहै। कृशादि की तृषामें चिकित्सा । मद्यजतृषा । | कृशदुर्बलरूक्षागां क्षीरं छागो रसोऽथवा । मद्यादर्धजलम् मधं स्नातोऽम्ललवणैर्युतम्॥ अर्थ-कृश, दुर्वल और रूक्ष मनुष्य अर्थ-मद्यसे उत्पन्न हुई तृषामें रोगीको | की तृषामें वकरी का दूध वा बकरी का मांस. स्नान कराके आधा जल मिली हुई शराव | रस हित है। जिसमें खटाई और नमक पडाहो,देना चाहिये। ऊर्ध्ववात में चिकित्सा । - तीक्ष्णाग्नि में शीतल जल । । क्षीरंचसोलवातायां क्षयकासहरैः शृतम् ॥ नेहतीक्ष्णतराग्निस्तु स्वभायशिशिरं जलम् | ___अर्थ-ऊर्ध्व वातजनित तृषारोग में क्षय ___ अर्थ-स्नेहपान के द्वारा अग्निके अत्यंत | और खांसी को दूरकरने वाली औषधों के तीक्ष्ण होने से, जो तृपा उत्पन्न होती है । साथ औटाया हुआ दूध पीवै । च शब्द से उसमें स्वाभाविक शीतल जल हितकारक मांसरसका भी ग्रहण है । होता है। उपसर्गजगेगमें चिकित्सा । ___ अजीर्ण की तृषा में गरमजल । रोगोपसर्गजातायां धान्यांबु ससितामधु । नेहादुष्णांबुजीर्णात्व जीर्णान्मण्डं पिपासितः | पानं प्रशस्तं सर्वाश्च क्रिया रोगाद्यपेक्षया.॥ ___ अर्थ-स्नेहके न पचनेपर जो तृषा होती . अर्थ-किसी रोगके उपसर्ग से उत्पन्न है उसमें गरमजल तथा स्नेहके पचनेपर जो हुई पिपासामें खांड और मधु मिलाकर धा. तृषा होती है उसमें मंडरान करना चाहिये। न्याभ्वु अर्थात् कांजी का पान करना चाहि स्निग्ध तृषामें कर्तव्य । ये । रोगके उपसर्ग से उत्पन्न हुई व्याधियों पिवेस्निग्धान्नतृषितोहिमस्पर्धि गुडोदकम् | में जो जो क्रिया कही गई है वे सव तृषा ' अर्थ-स्निग्ध अन्नके भोजनसे उत्पन्न | रोगमें भी हितकारी होती हैं । हुई तृषा में गुडका शर्वत पीना हित है। तृषाकी चिकित्सा में प्रधानता । गुरुअन्नकी तृषामें कर्तब्य । तृष्यन् पूर्वामयक्षीणो न लभेत जलम् यदि । गुर्वाद्यन्नेन तृषितः पीत्वोष्णांबु तदुल्लिखेत्। मरणं दीर्घरोगंवा प्राप्नुयात्वरितं ततः ८२ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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