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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२८६) - अष्टांगहृदय । . सिराओंकी संख्या। इन दस शिराओं के द्वारा संपूर्ण देहमें सदा दश मूलसिराहृत्स्थस्ताःसर्व सर्वतो वपुः ॥ सर्वदा आहारका रसात्मक ओज बहकर पहुं रसात्मकं वहंत्योजस्तन्निवद्धं हि चेष्टितम् । | चता है और इन्हींके द्वारा शारीरिक कायिक स्थूलमूलाःसुसूक्ष्मानाः पत्ररेखाप्रतानवत् ॥ | मानसिक और वाचक चेष्टायें संपादित होती भिद्यते तास्ततःसप्तशतान्यासां भवति तु । हैं इसलिये ये दस सिरा ही प्रधान हैं । जै' अर्थ-हृदयमें स्थित दस मूलशिरा हैं । | से वृक्षके पत्तोंकी रेखाओंके समूह जडमें मो देहिनाम् ।स्नायूनि योवोत्त सम्यग्वाह्यान्याभ्यतराणि च । साढे शल्यमाहंतु देहाच्छक्नोति दहिन इति। अर्थात्पांव में पांच उंगलियां, और हरएक उंगली में छः छः के हिसाब से तीस हुई । तलुआ, कूर्च और गुल्फ इनमें हर एक में दस दस के हिसाब से तीस, जंघामें तीस जानु में दस, ऊरू में चालीस, वंक्षण में दस । सब मिलाकर एक सक्थि में १५० दूसरी सक्थि में १५० बाहुओं में सक्थि के समान होती हैं । इस तरह चारों हाथ पांवों की मिलकर ६०० हुई कमर में ४० मुष्क मेढ़ और वस्ति में बसि, पीठ में अस्सी, पसली में साठ, आंख में चार, हृदय में अठारह, दोनों कंधों में आठ, इस तरह मध्यभाग में सब मिलाकर २३० हुई तथा मन्या, बट, नेत्र, ओष्ठ और तालु में दो दो, ग्रीवा में तीस, जत्रु में तीन, हनु में चार, जिवा में पांच, दंत मांस में बारह और मूर्धा में छः ये ७० स्नायु प्रीया के ऊपर के भाग में है । तीनों स्थानों में मिलाकर ९०० हुई। स्नायु चार प्रकार की होती हैं यथा--सुषिर, प्रतानयती, वृत्त और पृथु । इनमें से आमाशय, पक्वाशय, अंत्र और वस्ति में सुषिर संक्षक अर्थात् छिद्रवाली स्नायु हैं । शाखा और संधियों में प्रतानवती अर्थात् फैली हुई स्नायु हैं । वृत्त स्नायु कंडरा है । पसली पीठ, वक्षःस्थल और सिरमें पृथुसंशकहैं । सिरा और अस्थि आदि से स्नायु की रक्षा विशेष यत्न से करना चाहिये। ___यह भी कहा है कि अस्थि, पेशी, संधि, और सिरा कटजाय वा टूट जाय तो मनुष्य के प्राणों का इतना भय नहीं है जितना स्नायु के नष्ट हो जाने से होता है। जो वैध बाहर और भीतर की सय स्नायुओं को जानता है वही शरीर में से गहरे लगे हुए शल्यों को निकाल सकता है। पेश्यः संप्रति भण्यते पंचांगुल्योथ नासुताः । प्रत्येकं तिन इत्येवंताः पंचदश कीर्तिताः । दशपाइतले गुल्फे तथा पादस्य चोपरि । कूर्चेतु विंशतिः स्यात्तु जंघायां पंच जानुनि । ऊरौ विंशतिरित्येचं शतं सक्न्ये कतो भवेत् । शतं द्वितीयेऽपि तथा सक्थिवत् भुजयोर्मताः । चत्वार्येवं शतानि स्युः शाखास्वकैव मेहने । सीवन्यां च वृषणयो· स्फिजोस्तुदशस्मृताः । तिम्रो गुदे वस्तिमूनि द्वे चतस्त्रस्तु कोष्ठगाः । नाभ्यामेकाऽथहधेका स्यादेकामाशयेऽपि षट् । यकृतप्लीहोन्दुकेषु स्युश्चतस्रः पृष्ठतोदश । पार्श्वयोर्वक्षसिदश चतस्र श्चाक्षकांस्तयोः। इत्यंतराधौ षष्ठिःस्युः ग्रीवायां दश गंडयोः । अष्टौ हनुप्रदेशेष्टा वेकैका काकले तथा । जिह्वायां मूर्ध्नि गलके द्वे ललाटेऽथ तालुनि । द्वे ओष्ठयोः कर्णयो₹ नासायां देव कीर्तिते । पुरुषाणां भवेदेतत् पेशीनां शत पंचकम् । अर्थात् अब पेशियों का वर्णन करते हैं जैसे एक पांव में पांच उंगलियां होती हैं इस हिसाव से पांचों उंग For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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