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शारीरस्थान भाषाटीकासमेत ।
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स्नायु और पेशीकी संख्या । । अर्थ-पुरुष के देह में ९०० स्नायु बाबानवशती पंच पुंसां पेशीशतानि च ॥ और१००पेशीहैं, परन्तु स्त्रियोंके योनि और अधिकाविंशतिःस्त्रीणांयोनिस्तनसमाश्रिताः | स्तनसंबंधी २० पेशी अधिक होती हैं।
में ५ इस तरह सब मिलाकर २१० हैं । संधि ८ प्रकार की होती है, यथा- कोर, उलूखल, सामुद्र, प्रतर, सेवनी, काकतुंड, मंडल और शंखावर्त । इनमें से पांचा, जानु, गुल्फ और उंगली इनमें कोर संज्ञक, दांतोकी जर, वंक्षण और कक्षामें उलूखल संक्षक कंधा, पीठ, गुदा, भग और नितंब में सामुद् अर्थात् ढकने की सूरत की । प्रीवा और पीठ के पांसे में प्रतर अर्थात् डोंगी की सूरत की । सिर कटि और कपाल में सेवनी अर्थात् सीमनकी सी सूरतकी हनुके दोनों ओर काकतुंडा अर्थात् कौएकी चोंचके सहश, कंठ, हृदय क्लोम और नेत्रों की नालियों में मंडला अर्थात् गोलाकार । कान और शृंगाटक में शंखावर्त अर्थात् शंखकी लहरोंके सटश संधियां हैं।
तथा धन्वन्तरि के मतसे ३०० हड्डियां हैं जैसे- एकैकस्यांतु पादांगुल्यां त्रीणि त्रीणि तानि पंचदश । तलकूर्च गुल्फ संश्रितानि दश । पार्णयामेकं जंघायां छै । जानुन्येकम् । एकमुराविति । त्रिंशदेवमेकस्मिन् सक्नि भवंति । एतेनेतर सक्थिवाहू च व्याख्याती। श्रोण्या पंच तेषां गुदभगनितंबेषु चत्वारि त्रिकसंश्रितमेकं । पार्वेषटू त्रिंशदेवमेकस्मिन् नितीयेप्येवं । पृष्ठेत्रिंशत् । अष्टापुरसि । द्वेअक्षकसंखे । प्रीवायां नवकं । कंठनात्यां चत्वारि द्वे हन्योः । बताद्वात्रिंशत् । नासायांत्रीणि । एकं तालुनि । गंडकर्णशंत्रेबेकैकम् । षसिरसि अर्थात् एक एक पांव की प्रत्येक उंगली में तीन तीन (सब मिलाकर १५) तलुए में सलाईके आकारकी पांच, इन पांचों के बांधनेवाली एक, कूर्चामे दो, टकनेमें दो सब दसहुई। पढीमें एक, जांघमें दो, जानुमें एक, ऊरुमें एक, इसतरह सब मिलाकर एक पांव में तसि इडिया हुई हाथ पांवकी बराबरही होती हैं इसलिये चारों हाथ पायों में १२० हुई। कमर में पांच इनमेंसे गुदा और भगमें एक एक, नितंब दो, त्रिको एक, एक ओर की पसली में उत्तीस, दूसरी ओरकी पसलीमें छत्तीस, पीठमें तीस, बक्षस्थलमै आठ, आंखमें दो ग्रीवामें नौ, कंठमें चार, ठोढीमें दो, दांतोंमें बत्तसि, नासिकामें तीन, तालुमें एक कपोल में दो, कनपटीमें दो, कानमें दो. और सिरमें छः (सब मिलाकर १८०) तथा पहिली १२० और ये १८० मिलाकर ३००हडियां होती हैं। ____ + पदे पंचस्युरंगुल्या प्रत्यंगुलि तु तानिषट् । त्रिंशदेवं दश दश कूर्चे पादतले तथा । गुरुफेचेति त्रिंशदेव जंघायां वशजानुनि । चत्वारिंशत्स्युरूरौ च वंक्षणे दश सक्थिनि । सार्ध शतं द्वितीयेऽपि तद्वाहोश्च सक्थिवत् । शाखास्वेवं षटू शतानि कटयां देविंशती स्मृते । विंशतिर्मुष्कयोमेंदूवस्त्यंत्रेषु च कीर्तितः अशीतिः पृष्टभागे स्युः पानयोः षष्टिरक्षयो। चत्वार्युरस्यष्टवश त्वष्टावंशयुगे स्मृताः। मध्येशतद्वयं त्रिशद वे द्वे मन्यावहौ स्मृते । नेत्रोष्ठे तालुनि तथा ग्रीवायांत्रिंशदीरिताः । जणि त्रीणि चत्वारि हन्वोःपंच तु कीर्तिताः। जिवायां दंतमांसेषु द्वादशैबाथ मूनि षट् । एवं शतानि स्नायूनां नवैतेषु विनिर्दशेत् । आम पकाशयांत्रेषु वस्तौ च सुषिराणितु । प्रतानवंति शाखासुमहानावानि कंडराः। वृत्तानि पार्श्व पृष्ठोरः शिरसि स्युः पृथूनि च शिरादिभ्योऽव्यस्थितोऽपि रक्षेत् नावानि यत्नतः। तथाचोतम् । न घस्थीनि तथा हिंस्युर्न पेश्यो न च संधयः । व्यापादिता अपि सिरा यथा स्नायनि
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