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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२८४ ) अष्टांगहृदय । अ० ३ - धन्वंतरि और आत्रेयका मत। | स्थियों की संख्या तीनसौ और संधि दोसौ धन्वंतरिस्तुत्रीण्याह संधीनांच शतद्वयम् ॥ | दश हैं आत्रेयमनि कहते हैं कि स्नाय. पेशी दशोत्तरं __ सहस्र द्वे निजगादाऽत्रिनंदनः।। और सिराश्रित संधियों को मिलाकर धन्वन्तरि का मत है कि शरीर में अ- २००० संधि है । * ऊरु में एक और जानुमें एक । इस तरह एक पांव में सब मिलाकर ३५ हुई। हाथों में पांव के बराबर ही होती हैं केवल नामका भेद हैं । जैसे-पादकी तरह पाणि, एडी के तुल्य हस्तमूल, गुल्फ (टकने) के सदृश मणिबंध (पहुंचा) कूर्चा दोनों में समान हैं। जंघा के सदृश प्रकोष्ठ, (खवा ), जानु के सदृश कूर्पर ( कोहनी), और ऊरु के सदृश वाहपृष्ठ होता है । इस तरह चारों हाथ पावों की मिलाकर १४० हुई। दोनों पसलियों में चौबीस चौवीस, इनके फलक और अर्बुद चौवीस पीठमें ३०, वक्षस्थल में ८, त्रिभाग में एक एक, अक्षक, अंस और उनके फल में दो दो नितंब में दो ये सब १२० हुई । तथा कपोल कान और कनपटी में दो दो, तालु और जत्रुमें एक, एक, ग्रीवामें तेरह, कंठमें चार, हनु में दो, दांत बत्तील, उलूखल वत्तीस, नासिका में और सिरमें छः इस तरह सब मिलाकर १०० हुई। और शाखा मध्यभाग और ऊर्ध्वभाग की मिलाकर ३६० हुई। हड्डी पांच प्रकार की होती हैं यथा-कपाल, रुचक, तरुण, वलय और नलक । इनमें से नितंब, गड, जानु,ताल और सिर और कंधे में कपाल संज्ञक, दांतों में रुचक संज्ञक घ्राण कर्ण और अक्षिकोष में तरुण संशक, पीठ पसली और चरण में वलय संशक और शेष हड्डियां नलक संक्षक होती है । इनके नाम इनकी आकृति के अनुसार रक्खे गये हैं। __x संख्यायंते संधयोऽत्र चतस्रोगुलयः पदे। चतसृष्वंगुलाषुस्युः प्रत्येकंत्रयएवतु । द्वावंगुष्ठे वंक्षणे स्यादेको गुल्फे तु जानुनि । सक्न्येकस्मिन् सप्तदश तावंतोऽपिद्वितीयके । भुजयोः सक्थितुल्यानि चांतराधौत्विमेमताः । त्रयःकटीकपालेषु विंशतिश्चतुरुत्तरा । पृष्ठे तद्वत्पार्श्वयोश्च वक्षस्यष्टावथोलतः। शिरोधरायामष्टस्युः कंठनाड्यां प्रयास्मृताः । हृदय क्लोमयकृतां नाडीष्वष्टादश स्मृताः । द्वात्रिंशदंतमूलेषु चैकैके घ्राणकाकले।मूर्ध्निच द्वौ कणशंखे गंडनेत्रे च वमनि । हनुसंधौच विशेयौ द्वौ भुवोश्चोपरि स्मृतौ । पंच मूर्धकपालेषु चोर्ध्वमेवं त्र्यशीतिका । संधयस्त्वष्टधा शेया मणिबंधेऽथजानुनि । गुल्फेगुलौ कोरसंक्षा द्विजमूलेषु वंक्षणे । कक्षायां चोलूखलाख्या अंसपीठे गुदे भगे । नितंबे चैव सामुद्रा ग्रीवायांपृष्ठवंशके । प्रतराः स्युर्मूर्धकटी कपालेषु तु सीवनाः । हनूभये काकतुंडाः कंठस्य पन्नगस्तथा । हृदयक्लोमनेत्राणां नाड्यां मंडलनामिकाः । श्रोत्रशंगाटकाख्येषु शंखावर्ता इति स्मृताः । अर्थात् हर एक पांव की चार उंगलियों में से प्रत्येक में तीन तीन और अंगूठे में दो तथा एक वंक्षण में, एक गुल्फ में और एक जानु में, इसतरह सब मिलाकर एक पांव में १७ संधियां हैं, इतनी ही दूसरे पांव में हैं । हाथों में पावों के तुल्य होती हैं इस तरह सब मिलाकर ६८ हुई । कटि और कपाल में तीन पीठके बांसे में २४, पसलियों में २४, वक्षस्थल में ८, ग्रीवा में ८, कंठमें तीन, हृदय, क्लोम और यकृत की नाडियों में १८, दांतकी जडमें ३२, नासिका और काकलको एक एक, मूर्धा में दो, कनपटियों में दो, गंडस्थलमें दो, नेत्रमें दो, वममें दो, हनुमें दो, भृकुटियों के ऊपर दो, मूर्धा और कपाल For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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