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अष्टांगहृदये ।
कर्म की रीति ।
त्रिवर्गशून्यं नारंभं भजेत्तं चाविरोधयन् ॥ अर्थ - धर्म, अर्थ और काम इन तीनों को लक्ष्य में रखकर काम का प्रारंभ करे और इन तीनों में परस्पर किसी प्रकार का विरोध पैदा न हो ऐसी रीति से काम करना उचित है । जैसे धर्मका काम करने में अर्थहानि और कामहानि न होने पावै, इसी तरह अर्थ प्राप्त करने में धर्महानि वा कामहा ने न हो और काम साधन में धर्महानि वा अर्थहानि न हो
अन्य नियमापनियप |
अनुयायात्प्रतिपदं सर्वधर्मेषु मध्यमाम् ३०| नीरोमनखश्मश्रुर्निर्मलांनिमलायनः ॥ स्नानशीलः सुरभिः सुवेषोऽनुल्बणोज्ज्वलः धारयेत्सततं रत्नसिद्ध मंत्रमहौषधीः ॥
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अपने आगे की चार हाथ पृथ्वी को देखता हुआ मार्ग में निकले । रात्रि में अथवा किसी संकट के काम में जब बाहर जाने की आवश्यक्ता हो तो लाठी लेकर सिरपर साफा बांधकर दो चार सहायकों को संग लेकर निकले, किसी आचार्य ने लाठी बांधने की प्रशंसा में लिखा है कि "स्खलतः संप्रतिष्ठानं शत्रूणां निषेधनम् । अवष्टंभनमा युष्यं भयन्नं दडधारणम् ॥ गिरते हुए को सहारा देने वाली, शत्रुओं को निवारण करने वाली, आधार देनेवाली, आयुवर्द्धक और भयनाशक लाठी होती है । चैत्यपूज्यध्वजाशस्तच्छाया भस्मतुपाशुचीन् नाकामेच्छर्करालोष्टबलिस्नानभुवोऽचि । नदीं तरेन बाहुभ्यां नाग्निस्कंधमभिव्रजेत् ३४ संदिग्धनावं वृक्षं च नारोहेदुष्ट्यानवत् ॥
अर्थ- देवस्थानका वृक्ष, गुरुपुत्रादि पूज्य मूर्ति, ध्वजा, चांडालादिक की छाया, भरम का ढेर, अपवित्र विष्टारि कंकरीलीरेत, मिट्टी, बलिदान और स्नान करके स्थानों का उल्लं घन न करै । बाहुबल से नदी के पार न जाय, अग्नि के समूह के सम्मुख न जाय, जैसे खोटी सवारी पर नहीं चढते हैं वैसे ही संदेह पड़ जानेपर नात्र वा वृक्ष पर न चढे ।
अर्थ- संपूर्ण धर्मों के आचरण में मध्यम का अवलम्बन करना चाहिये । बाल, नख, डाढी, मूछ आदि को कटवा छटवा और मुड़वाकर ठीक और स्वच्छ रखे और हाथ, पांव, नाक, कान, आदि का मैल दूर कर के साफ़ रक्खै प्रतिदिन स्नान करके सुगंधित द्रव्यों को धारण किये रहे, स्वच्छ, निर्मल और उज्वल वस्त्रादि से भले आदमि यों का सा सुन्दर वेष धारण रक्खे, उद्धत वेष धारण करके छैठा बना न फिरे । रत्नाभरण, अपराजितादिक सिद्ध मंत्र और सह देवी आदि महा औषधियों को सदा धारण करे | सातपणो विचरेयुगमा ||१२|| निशि वात्ययि कार्ये दंडी मौली सहायवान्, अर्थ - छत्री लगाकर और जूता पहनकर
संवृतमुखः कुर्यात्युविहायविभग ३५ नासिकां न विकुष्णीयान्नाकराद्विलिरुद्ध वस् airage विगुणं नातोत्थतः ३६ देहवाचेतसां नेष्टाः प्राकू श्रमाद्विनिवर्तयेत् नोर्वानुश्चिरं तिष्ठेन्नतं सेवेत न द्रुमम् ३७ तथा चत्वरचैत्यांतश्चतुष्पथसुरालयान ॥ सुनावशून्य गृहश्मशानानि दिवापि न ३८
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