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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३२८) अष्टांगहृदय । . अर्थ-जो रोगी दांतों से नखके अग्रभाग, | ना कारण ही बढ़ते चले जाय और स्वभाव केश वा तिनुकों को काटता है, भूमि पर | में हानि होती जाय उस रोगीके जीवन को लकडी से लकीरें खींचता है, मिट्टी के ढेले | मृत्यु हर लेती है ॥ को दूसरे ढेले से फोडता है। जिसके | वैद्य के चिन्ह । रोमांच खडे होगये हैं, जिसका मूत्र गाढा | यमुहिश्यातुरं वैद्यः संपादयितुमौषधम् । होगया है, जिसको सुखी खांसी हो और / यतमानोनशक्नोति दुर्लभ तस्य जीवितम्। अर्थ-जिस रोगीके लिये वैद्य औषध ज्वर हो, जो वार वार हंसता है और नाक तयार कर सकता है और करने का यत्न कान को हाथों से कुरेदता है, शय्या को वार पार पावों से पीटता है वह रोगी शीघ्र करने पर भी तयार न करसके तो रोगीकी मरजाता है। मृत्यु का सूचक है ॥ तिल व्यंगादि चिन्ह । औषधि के चिन्ह । मृत्यबे सहसातस्य तिलकव्यंगविप्लवः।।१२० व विज्ञातं वहुशः सिद्धं विधिवच्चावतारितम् मुखे दंतनखे पुष्प जठरे विविधाः सिराः।। | न सिध्यत्यौषधं यस्य नास्ति तस्य चिकित्सितम्। अर्थ-निहा रोगी के मुख पर तिल वा | | अर्थ-जिस औधष के गुण और कर्म व्यंग सहसा उत्पन्न हो जाय, उसके दांत और नखों में पुष्प पैदा हो जाय और पेटमें | | अच्छी तरह ज्ञात हों और जिसके प्रयोग द्वारा अनेक वार फलसिद्धि भी होचुकी हो, अनेक रंग की काली नीली नसें खडी हो जाय वह रोगी शीघ्र मरजाता है । वही औषध यदि किसी रोगी पर अपना उर्वश्वास के चिन्ह । प्रभाव न दिखावै, तो उसकी चिकित्सा ऊर्ध्वश्वासं गतोष्माण शूलोपहतवंक्षणम् ॥ | करना व्यय ह । शर्म वाऽनधिगच्छंतं बुद्धिमान् परिवर्जयेत्। औषधादि का वर्ण विपर्ययः। अर्थ-जिस रोगी के ऊर्ध्वश्वास चलता | भवेद्यस्यौषधेऽन्ने वा कल्प्यमाने विपर्ययः॥ हो । जिसके देहकी गरमी जाती रही हो।। अकस्माद्वर्णगंधादेः स्वस्थोऽपिन सजीवति जिसके अंडकोषों में वेदना होती हो । अने ____अर्थ-विना कारणही जिस रोगी के लिये तयारकी हुई औषध वा भोजन के रूप और गंध क प्रकारकी चिकित्सा करनेपर भी जिसको में विपरीत भाव होजाय अर्थात और का और सुख प्राप्त न होता हो । ऐसे रोगीको त्याग रूप रंग और गंधादिक हो जाय तो निरोग देना चाहिये ॥ सहसाबिकारादि । पुरुष भी नहीं जीता है फिर रोगी का तो विकारा यस्य वर्धते प्रकृतिः परिहीयते॥ | कहना ही क्या है। सहसा सहसा तस्य मृत्युहरति जीवितम् । मत्यु के अन्याचिन्ह । अर्थ-जिस रोगीके ज्वरादिक विकार बि.निबाते संधनं यस्य ज्योतिश्चाप्युपशाम्यति For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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