SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 426
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शारीरस्थान भाषाटीकासमेत । (३२९ ) - आतुरस्य ग्रहे यस्य भियंतेवा पतंति वा।। युर्वेद का संपूर्ण फल प्रतिष्ठित है इसलिये अतिमात्रममत्राणि दुर्लभं तस्य जीवितम् ॥ वैद्यको उचित है कि आयके परिज्ञान और ' अर्थ-जिस रोगी के वायुरहित घरमें । परिपालन के निमित्त रिष्टके ज्ञानसे भी समाभी ईंधन लगाते लगाते अग्नि आदि ज्योति, दृत होना चाहिये ॥ ठंडी पडजाय वह रोगी मरजाता है, जिस पुण्यादिक्षय से मरण । रोगी के घरमें वर्तन बहुत गिरें वा फूटें उस मरणं प्राणिना दृष्टमायुःपुण्योभयक्षयात् । रोगी का जीना दुर्लभ है। तमोरप्यक्षयात्दृष्टं विषमापरिहारिणाम् ,, आत्रेय का मत । | यं नरं सहसा रोगो दुर्वलं परिमुवति।। अर्थ-मुनिलोग कहते हैं कि आयु और संशयं प्राप्तमात्रेयो जीवितं तस्य मन्यते ॥ पुण्य इन दोनों के क्षीण होनेसे मृत्यका होना ___ अर्थ-जिस दुर्बल मनुष्य को रोग सहसा । देखा गया है । किंतु जो विषम आहार छोडदें तो उस रोगी का जीवन संशययुक्त | विहार अर्थात् हाथी, थोडा, गौ, भेंस, दु• होता है, यह आत्रेय का मत है । गंध, मलमूत्रादि वेग धारण, उच्चस्थान से - मृत्यु सूचक वाक्योंका निषेध । प्रपतन इन बातों को नहीं त्यागते हैं उन कथयेनैव पृष्टोऽपि दुःश्रवं मरणं भिषक। की मृत्यु भी आयु और पुण्य के क्षीण होसे गतासोबधुमित्राणांनचेच्छेसांचकित्सितुम् । से होजाती है । - अर्थ-पूछे जानेपर भी वैद्यको उचित । इति श्री अष्टांगहृदये भाषाटीकायां नहीं है कि रोगीके बंधु बांधवों से रोगीकी । शारीस्थाने पंचमोऽध्यायः । मृत्युके दुःश्राव्य बचनों को कहे और आसन्न मृत्यु रोगी की चिकित्सा करना भी *उचित नहीं है ॥ षष्ठोऽध्यायः। चिकित्साके निष्फलहोने में कर्तव्य। यमदूतपिशाचायैर्यत्परासुरुपास्यते। .... अथाऽतो दूतादिविज्ञानीय शारीरंनद्भिरौषधवीर्याणि तस्मात्तं परिवर्जयेत् ॥ __ व्याख्यास्यामः। . अर्थ-क्योंकि यमदूत और पिशाचादि ___ अर्थ-अब हम यहांसे दूतादिविज्ञानीय गण मरने वाले रोगीके पास आते जाते रहते हैं और व्याधिप्रशमन के निमित्त जो औषध शारीर नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे। दी जाती है । उसको निष्फल कर देते हैं पाखंडादि दूतों की शुभाशुभ सूचना । "पाखण्डाश्रमवर्णानां सबः कर्मसिद्धये। इसलिये उस रोगी को छोडदेना चाहिये । । तएव विपरीताः स्युर्दूताः कर्मविपत्तये १॥ रिष्टज्ञानादरमें हेतु । ___ अर्थ-उनहत्तर प्रकार के पाखंड, चार आयुर्वेदफलं कृत्स्नं यदायुद्धे प्रतिष्ठितम् । रिष्टवानादृतस्तस्मात्सर्वदेव भवद्भिपत१३१ / प्रकार के आश्रम ( ब्रह्मचारी, ग्रहस्थ, भिक्षु ... अर्थ-आयुर्वेद के जाननेवाले वैद्यमें आ- | और वैखानस ) चार प्रकारके वर्ण ( वा. For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy