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म. ४
शारीरस्थान भाषाटीकासमेत ।
[३२७]
प्रातःकाल में प्रलेपक अर्थात् कफज्जर से | चला जाय तो उसको त्यागदेना चाहिये । उपतप्त रोगी के मुख पर अधिकता से वातज व्रण के चिन्ह ।। पसीने आने लगें तो उसका जीवन दुर्लभ | यो वातजो न शूलाय स्यान्न दाहाय पित्तजाः होता है ।
कफजो न च पूयाय मर्मजश्च रुजे न यः। पिटिका द्वारा मृत्यु चिन्ह ।
अचूर्णश्चूर्णकीर्णाभो यत्राऽकस्माञ्च दृश्यते।
रूपं शक्तिध्वजादीनां सर्वास्तान्वर्जयेवणान् । प्रवालगुलिकाभासा यस्य गात्रे मसूरिकाः। उत्पद्याशु विनश्यति न चिरात्स विनश्यति
___ अर्थ-यदि वातज ब्रणमें शूल न हो, अर्थ-मूंगे की सी कांति के सदृश पित्तज व्रणमें दाह न हो, कफज व्रण में मसूर की बराबर फुसियां उठ उठकर जिस राध न पडी हो, मर्मज ब्रणमें वेदना न रोगी के देह में शीघ्र ही जाती रहती है,
। जाती रहती है. | होती हो, और बिना चूना लगाये ही चूने वह जल्दी मरजाता है।
| से लिहसा हुआ सा दिखाई दे तथा विना विस्फोटक चिन्ह ।
कारण ही उसमें शक्ति वा वजा आदि के मसूरविदलप्रख्यास्तथा विद्रुमसन्निभाः।।
चिन्ह दिखाई दें तो ऐसे व्रणवाले रोगियों भंतर्वक्त्राः किणाभाश्च विस्फोटा देहनाशना
| को त्याग देना चाहिये। ... अर्थ-मसूर की दाल के आकारवाली
भगंदर के चिन्ह । मूंगे कीसी आकृतिवाली भीतर को मुखवाली और किणा के सदृश ये चार प्रकार की
विण्मूत्रमारुतवहं कृमिणंच भगंदरम् ।११६॥
अर्थ-जिस भगंदरमें से मल, मूत्र और विस्फोटक फुसियां रोगी को शीघ्र मार | वाय निकलती हो और कीडे पडगये हो डालती हैं।
वह त्यागदेना चाहिये। कामलादि चिन्ह । कामलाऽक्ष्णोर्मुखं पूर्ण शंखयोर्मुक्तमांसता। घट्यन जानुना जानु पादावुद्यम्य पातयन् ।
जानुघट्टनादि चिन्ह । संत्रासश्चोष्णतांऽगे च यस्य तं परिवर्जयेत् | अर्थ-जिस रोगी की आंखों में कामला,
योऽपास्यति मुहुर्वक्त्रमातुरो न स जीवति । मुख भरा हुआ, कनपटियों का मांस शि
___अर्थ-जो रोगी घुटने से घुटने रिंगडता थिल, संत्रास और शरीर में उष्णता होतो
हुआ दोनों पांवों को उठाकर पादबिक्षेप ऐसे रोगी की चिकित्सा करना व्यर्थ करता है और विना कारणही मुखको चलाता
विघष्ट ब्रण के चिन्ह । । | है वह जीता नहीं है। अकस्मादनुधावश्च विघृष्टं त्वक्समाश्रयम् ।
रोगी की चेष्ठादि। अर्थ-जिस रोगी के रिगड लगने से | दंतैश्छिदनखाग्राणि तैश्च केशांस्तृणानि च। त्वचामें व्रण होगयाहो और वह फैलता ही । भमि काष्ठेन विलिखन् लोष्टं लोष्टेन ताडयन् १ क्षेपक:- चंदनोशीरमदिराकुणपध्वांक्षगं | दृष्टरोमा सांद्रमूत्रः शुष्ककासी ज्वरी च यः धयः । शैवालकुकुटशिखाकुंदशालिमयम मुहुर्हसन मुहुः क्ष्वेडन् शय्यां पादेन हंति यः। भा। अंत हा निरूष्माणःप्राणनाशकरावणाः मुहुश्छिद्राणि विमृशन्नातुरो न स जीवति ।
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