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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टांगहृदय । अ०५८ लता है। वलमांस क्षयादि । कोषों का आश्रय लेकर अथवा गुह्य देश वलमांसक्षयस्तीवो रोगवृद्धिररोचकः॥ | और हृदय का अवलंवन करके दुर्वल रोगी यस्यातुरस्य लक्ष्यंते अनि पक्षानस जीवति । के प्राणों का नाश कर देती है । अथवा अर्थ-जिस रोगी का बल और मांस वायु कुपित होकर पुरीषादि मल को वस्ति अत्यन्त क्षीण होता जाता हो । तथा रोग के मुख में और नाभिस्थल में रोककर की वृद्धि और अरुचि दिखाई दे वह डेढ | दारुण वेदना को उत्पन्न करती है । तथा महिने भी नहीं जी सकता है । अंडकोषों में सूजन तथा तृषा और भिन्नवाताष्ठलिाके चिन्ह । पुरीषता को उत्पन्न करके, अथवा श्वास वाताऽष्टीलाऽतिसंवृद्धातिष्ठंतीदारुणा हदि तृष्णया तु परीतस्य सद्यो मुष्णाति जीवितम् उत्पन्न करके गुदा और अंडकोषों का ___ अर्थ-बातोद्भव अष्ठीला अत्यन्त बढ- ग्रहण करके वायु रोगी को शीघ्र मार डा. कर दारुणरूप से हृदय में आकर स्थित हो जाती है, इसमें रोगी को प्यास अधिक पशुकाग्रगत वायु । लगने पर तत्काल मृत्यु होती है । वितत्य पशुकाग्राणि गृहीत्योरश्च मारुतः। __ अंगविशेष में वायु के चिन्ह ।। स्तिमितस्यातताक्षस्य सधोमुष्णातिजीवितम् __ अर्थ-जिस रोगी की पसलियों के अशैथिल्यं पिंडिके वायुर्नीत्वा नासां च जिह्मताम् ॥ १०४॥ | प्रभाग में वायु प्रविष्ट होकर वक्षस्थल को क्षीणस्यायम्य मन्ये वा सद्यो मुष्णाति- जकड लेती है और वह वहां या तो प्र जीवितम्। स्वेद लाती है वा निश्चल हो जाती है, अर्थ-वाय पिंडलियों में शिथिलता कर तथा नेत्र फैलजाते हैं. ऐसा रोगी शीघ्र मर देती है । नासिका को टेढी करदेती जाता है । है, तथा मन्या नामक दोनों सिराओं को चौडी कर देती है, ऐसा होने पर रोगी मर झटिति ज्वर संतापादिक । सहसा ज्वरसंतापस्तृष्णा मूी बलक्षयः । जाता है । विश्लेषणं च संधीनांमुमूर्षोरुपजायते।१०९। - नाभ्यादिगत वायु । अर्थ-जिस रोगी के ज्वर, संताप, तृषा नाभी गुदांतरंगत्वा वंक्षणौवा समाश्रयन् ॥ मूर्छा, बलक्षय, और संधिविश्लेष ये सब गृहीत्वा पायुहृदये क्षीणदेहस्य वा बली।। लक्षण सहसा उपस्थित हों तो मत्युसूचक मलान बस्तिशिरो नागभ विबद्धथ जनयन् रूजम् ॥ १०६॥ होते हैं । कुर्वन् वक्षणयोःशूलं तृष्णां भिन्नपुरीषताम् । लेप ज्वरादि के चिन्ह । श्वासंवा जनयन् वायुर्गृहीत्वा गुदवंक्षणम्॥ | गोसर्गे वदनाद्यस्य स्वेदः प्रच्यवते भृशम् । अर्थ-बलवान् वायु नाभि और गुदना- लेपज्वरोपतप्तस्य दुर्लभं तस्य जीवितम् ॥ डी के बीच में गमन करके दोनों अंड- अर्थ-गौ के खोलने के समय अर्थात् . For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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