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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३७४) अष्टांगहृदय । अ०५ ॥ ५३॥ सिरा इनको सुखाकर तृषा उत्पन्न होतीहै। कफन तृषा। तृषाका सामान्य लक्षण । कफो रुणद्धि कुपित्तस्तोयवाहिषु मारुतम् । तासां सामान्यलक्षणम् । स्रोतःमु सकफस्तेन पंकवच्छोण्यते ततः ॥ 'मुखशोषो जलातृप्तिरन्नद्वेषः स्वरक्षयः॥ | शूकैरिवाचितः कण्ठो निद्रा मधुरवक्त्रता । कण्ठोष्ठजिवाकार्कश्यं जिह्यानिष्क्रमणम् | आध्मानं शिरसो जाउयंस्तमित्यच्छद्य क्लमः प्रलापश्चित्तविभ्रंशस्तृड्ग्रहोक्तास्त आतस्यमावपाकश्च. थाऽऽमयाः॥४९॥ अर्थ-जब कफ कुपित होकर जलवाही - अर्थ-तृषाके सामान्य लक्षण ये हैं, । स्रोतोंमें वायुको रोक देता है तब वह कफ यथा-मुखशोष, वार बार जल पीने पर कीचर की तरह सूखने लगता है । कंठमें भी अतृप्ति, अन्न में अरुचि, स्वरभंग, कंठ । कांटे से खडे होजाते हैं । निद्रा, मुखमें मीओष्ठ और जिह्वा में खरदरापन, जिवा | ठापन, अफरा, सिरमें जडता, तिमिता, वका बाहर निकलना, क्लोति, प्रलाप, चित्त । मन, अरुचि, आलस्य और अविपाक, ये लविभ्रम, तथा तृझहोक्त संपूर्ण प्रकार के | क्षण उपस्थित होते है। रोग उत्पन्न होते हैं। त्रिदोषज तृषा । बातज तृषा के लक्षण । सर्वैः स्यात्सर्वलक्षणा । मारुतात्क्षामता दैन्यं शंखतोदः शिरोभ्रमः। अर्थ-जिस तृषारोगमें उक्त तीनों दोषों गन्धाज्ञानास्यवैरस्यथतिनिद्रावलक्षयाः ॥ HIT पाये जाते हैं वर चिटोशीतांबुपानादृद्धिश्च___ अर्थ-वातज तृषा में क्षीणता, दीनता, ताप से उपल्न होती है । कनपटियोंमें सूचीभेदवत् पीडा, सिरमें चक्कर बातपित्तज तृषा। आमोद्भवा च भक्तस्य सरोधाद्वातपित्तजा ।। गंधज्ञानका अभाव, मुखमें विरस ता,श्रवण अर्थ-आहार के रोकनेसे आमसे उत्पन्न शक्ति, निद्रा और बलका नाश होता है तृषा होती है । यह वातपित्तजा है । तथा ठंडा जल पीने से तृषा की औरभी पित्तजा तृषा। बृद्धि होती है। उष्णलांतस्य सहसा शीतांभो भजतस्तृषम्। पिचन तृषा। ऊष्मारुद्धोगतः कोष्ठं या कुर्यात्पित्तजैव सा पित्तान्मुर्छास्यतिक्तता। या च पानातिपानोत्था तक्षिणाने स्नेहजारक्तक्षणत्वं प्रततं शोषो दाहोऽतिधूमकः ५१ च या । अर्थ-पित्तज तृषारोगमें मूर्छा, मुखमें अर्थ-जो आदमी गरमी के कारण म्लातिक्तता, आंखोंमें ललाई, हर समय कंठ में न होरहा हो अर्थात् धूपमें चलकर आया हो शुष्कता, दाह और धूमनिर्गर्मवत प्रतीति । गरमी में तडफडा रहा हो और वह झटपट ये लक्षण होते हैं। | ठंडा जल पीले तो ऊष्मा कोष्ठमें जाकर तृ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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