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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निदानस्थान भाषाटीकासमेत । [३७ षा उत्पन्न करती है यह तृषा पित्तजा होती अर्थ-अब हम यहांसे मदात्यय नामक है । मद्यके अत्यंत पान करनेसे जो तृषा उ- | अध्यायकी व्याख्या करेंगे। पजती है अथवा तीक्ष्ण अग्निवाले मनुष्य के मदात्यय का निदान । जो स्नेह से तृषा उपजती है, ये सब पिसजा " तीक्ष्णोष्णरूक्षसूक्ष्माम्लं व्यवाय्याशुकरम् होती हैं लघु। कफजा तृषा। विकाशि विशद मद्यमोजसोऽस्माद्विपर्ययः। निग्धगुर्वम्ललवणभोजनेमकफोद्भवा५६॥ ___ अर्थ-मद्य तीक्ष्ण, उष्ण, रूक्ष, सूक्ष्म, अर्थ-चिकने, भारी, खट्टे और नमकीन अम्ल, व्यवायी, आशुकारी, लघु, विकाशी भोजनों से जो तृषा उत्पन्न होती है कफो- और विशद होताहै । ओज इसके विपरीत दवा होती है। होताहै अर्थात् आज मंद, शीतल, स्निग्ध क्षयजा तृषा। सांद, स्थूल, मधुर, स्थिर, चिरकारी, गुरु, तृष्णा रसक्षयोक्तेन लक्षणेन क्षयात्मिका। श्लक्ष्ण और पिच्छिल होताहै । ____ अर्थ-रसके क्षीण होने के प्रकरण में मद्यके गुण । जो रसक्षीण होनेके लक्षण कहे गये हैं, उन | तंक्षिणादयो विषेऽप्युक्ताश्चित्तोपप्लाविनो गुणा। बक्षणों से युक्त तृषा क्षयजा होती है । जीवितांताय जायते विपे सूत्कर्षवृत्तितः२॥ उपसर्गना तृषा। ___ अर्थ-तीक्ष्णादि चित्त विभूमकारक दस शोषमोहज्वराद्यन्यदीर्घरोगोपसर्गतः। गुण मद्यमें होतेहैं, येही दस गुण बिष में या तृष्णा जायते तीब्रा सोपसर्गात्मिका स्मृता॥ ५७ ॥ भी होतेहैं, किन्तु विषस्थ दस गुण इतने - अर्थ-शोष, मोह, स्वरादि तथा चिरका- तीव्र होतेहैं कि वे मनुष्यों के प्राणनाशक लीन अन्यान्य रोगोंके उपसर्गसे जो तीव्र तृ होते हैं। षा उत्पन्न होती है वह उपसर्गमा होती है। चेतोविकार का प्रकार । तीक्ष्णादिभिर्गुणैर्मा मंदादीनोजसोगुणान् । इतिश्री अटांगहृदयसंहितायां भाषाटी- दशभिर्दश संक्षोभ्य चेतो नयति विक्रियाम् - कार्या राजयक्ष्मानिदानं नाम आधे मदे द्वितीये स प्रमादायतने स्थितः । पंचमोऽध्यायः। दुर्विकल्पहतो मूढः मुखमित्यधिमुच्यते ॥ __ अर्थ-प्रथम मदमें मद्य अपने तीक्ष्णादि षष्ठोऽध्यायः । दस गुणों से ओज के मंदादिक दस गुणों को संक्षुभित करके चित्तमें विकार उत्पन्न करदेताहे । दूसरा मद प्रमाद का स्थानहै, अथाऽतो मदात्ययनिदानं व्याख्यास्यामः। | इसमें दुष्ट विकल्पों से उपहत अर्थात् नष्ट For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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