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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ०५ निदानस्थान भाषाटीकासमेत । [३७३ ) भिद्यते शुष्यति स्तब्धं हृदयं शून्यता द्रवः । तमःप्रवेशो हल्लासः शोषः कंडूः कफनतिः अकस्माद्दीनतां शोको भयं शब्दासहिष्णुता हृदय प्रततं चात्र कचेनेव दार्यते ॥ ४४ ॥ वेपथुर्वेष्टनं माहः श्वासरोधोऽल्पनिद्रता। चिकित्सेदामयं घोरं शीघ्र शीघ्रकारिणम् ___ अर्थ-वातज हृद्रोग हृदयमें तीब्रशूल, अर्थ-कृमिज हृद्रोग में नेत्रों में श्यावता, होताहै सुई चुभने और फटनेकी सी पीडा आंखों के आगे अंधेरा, इल्लास, शोष, होतीहै । तथा भेदन, शोषण, स्तब्धता, खुजली, कफका निकलना, ये होते हैं और शून्यता, और द्रवता होतीहै । इस रोगमें अकस्मात् दीनता, शोक, भय, शब्द का ऐसा मालूम होताहै कि हृदयके भीतर करौत न सहना, कंपन, अंगडाई, मोह, श्वासरोध से चीरा जा रहा है । यह रोग बडा भयंऔर अल्पनिद्रता होतीहै ।। कर और शीघ्र प्राणनाशक होता है क्योंकि पित्तजहृद्रोग के लक्षण । महामर्म हृदय को कीडे खाते हैं, इसलिये पित्तातुष्णा भ्रमो मूर्छा दाहः स्वेदोऽम्लकः- इसकी चिकित्सा शीघ्र करनी चाहिये । क्लमः ॥४१॥ तृषारोगका निरूपण । छर्दनं चाम्लपित्तस्य धूमकः पीतता ज्वरः। वातापित्तात्कफात्तृष्णा सन्निपाताद्गसक्षयात् __ अर्थ-पित्तज हृद्रोगमें तृषा, भूम, मूर्छा, | पष्ठी स्यादुपसर्गाच्चदाह, स्वेद, खडी, डकार, क्लांति, अम्ल वातपित्ते तु कारणम् । पित्तकी वमन, धूमनिर्गमन पीलापन और | सासुज्वर होतेहैं । तत्प्रकोपोहि सौम्यधातुप्रशोषणात् ४६ ॥ संवैदेहभ्रमोत्कंप्पतापतृड्दाहमोहकृत् । कफज हृद्रोग। ___ अर्थ-तृषा छ: प्रकारकी होती है, श्लेष्मणा हृदयं स्तब्धं भारकम् साश्मगर्भवत् ॥ ४२ ॥ यथा-वातज, पित्तज, कफज , सन्निपातज कासाग्निसादनिष्ठीवनिद्गालस्यारुचिज्वराः। रसक्षयज और उपसर्गज । इन सब प्रकार - अर्थ-कफज हृद्रोग में हृदय में स्तब्ध | के तृषा रोगों की उत्पत्ति का कारण वात ता और भारापन होते हैं, और ऐसा मालूम | और पित्त है । आहार विहार से शरीर की होता है कि भीतर पत्थर रक्खा हुआ है। रसादि सौम्यधातुओं के शुष्क होजाने से तथा खांसी, अग्निमांस, निष्ठीव, निद्रा, | वात और पित्त का प्रकोप होता है, और आलस्य अरुचि और ज्वर उत्पन्न होते हैं। इस प्रकोपसे संपूर्ण देह में भ्रम, कंपन ताप त्रिदोषज हृद्रोग। तृषा, दाह और मोह उत्पन्न होता है। . सर्वलिंगस्त्रिभिर्दोषैः तृषा की उत्पत्ति । ___ अर्थ-त्रिदोषज हृद्रोग में वातादि तीनों जिह्वामूलगलक्लोमतालुतोयवहाः सिराः दोषों के मिले हुए लक्षण होते हैं । संशोष्य तृष्णा जायंते कृमिज हृद्रोग। अर्थ-जिह्वा का मूल, गला क्लोम कृमिभिः श्यावनत्रता ॥ ४३ ॥ I (पिपासा का स्थान ) तालु और जलवाही For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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