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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७१.) अष्टांगहृदय । अ० ५ उक्तदशा में कर्तव्य। . फलवर्तिका प्रयोग । क्वाथवयं प्राग्विहितं मध्यदोषेऽतिसारिणि स्वभ्यक्तस्विनगात्रस्य तत्र वर्ति प्रयोजयेत् उष्णस्य तस्माद्धधकस्य तत्र पानं प्रशस्यते बिल्बादिश्च निरूहः स्यात्पीलुसर्षपमूत्रवान् फलवयंस्तथास्वेदाः कालंशात्वाविरेचनम् । सरलामरदारुभ्यां साधितं वाऽनुवासनम् बिल्वमूलनिवृद्दारुयवकोलकुलत्थवान् ५ ___ अर्थ-रोगी को तेल द्वारा उत्तम रूपसे सुरादिमांस्तत्रयस्तिःसप्राक्पेप्यस्तमानयेत् अभ्यक्त तथा स्वेदन कर्मसे स्विन्न करके अर्थ-इन लक्षणों के उपस्थित होनेपर अवस्था विशेष में फलवर्ति का प्रयोग करना अतिसार चिकित्सा में कहे हुए दो काथों में चाहिये, अथवा पील, सरसों, गोमूत्र और से एक ( भूतीक पिप्पल्यादि वा बिल्वधनिको) विल्यादि से युक्त निरूहण देवै । अथवा काथको गरम गरम पीना, फलवर्ती, स्वेद, | सरलकाष्ठ और देवदारु से सिद्ध की हाँ अबस्थानुसार विरेचन, बेलगिरी की जड. | अनुवासन देवै। निसोथ, देवदारु, जौ, बेर, कुलथी, इनकी वेगसंरोधमें वस्तिका फल ।। वस्ति तथा सुरायुक्त वस्ति, इनमें यमान्यादि कुर्वतो वेगसंरोधं पीडितो वाऽतिमात्रया । पूर्वलिखित द्रव्यों का कल्क मिलाकर देने चा- अस्निग्धलवणोष्णो वा बस्तिरल्पोल्पभेषजः हिये । इन प्रयोगोंसे उक्लिष्ट दोषोंका आकर्ष मृहांमारुतमोर्व विक्षिप्तोमुखनासिकात | निरेति मूळहल्लासतृइदाहादीन्प्रवर्तयन् । ण हो जाता है । .. धस्तिसवायुरोध ।। __ अर्थ-मलमूत्रादि वेगों के रोकनेवाले युक्तोल्पषीर्यो दोषाढ्ये रूक्षेकूराशयेऽथवा रोगी को तथा अति मात्रा में दी हुई वस्ति बस्तिर्दोषावृतो रुद्धमार्गो रुंध्यात्समीरणम् । से पीडित रोगी को, अथवा स्निग्धतारहित संबिमांगोंनिलः कुर्यादाध्मानं मर्मपीडनम् । लवणोष्ण वस्ति वा अल्पमात्रा की वस्ति, विदाह गुदकोष्ठस्य मुष्कवंक्षणवेदनाम्। वा अल्पऔषधान्वित वस्ति, अथवा मृदुवस्ति रुणद्धि हश्यं शूलैरितश्चेतश्च धावति ८ । के प्रयोग से वायुद्वारा ऊपर को फेंकी हुई ___ अर्थ-बहुत दोषों से युक्त, रूक्षदेह तथा ऋर कोष्ठवाले रोगी को अला वीर्यवाली वस्ति | वस्ति मूर्छा, हल्लास, तृषा और दाहादि. उपद्रव उत्पन्न करके मुख और नासिका. देवेसे वातादि दोषों द्वाग आवृत होने के | द्वारा बाहर निकल आती हैं। कारण उसका मार्ग रुकजाताहै, और इससे . उक्तअवस्था में कर्तव्य । बायुके गमनागमन के मार्ग को रोक देती है और इस कारण से वायु विमार्गगामी होकर | मूर्छाविकारंदृष्ट्वास्यसिंचेच्छीतांधुनामुखम् व्यजेदाक्लमनाशाच्च प्राणायामंचकारयेत् आध्मान, मर्मवेदना, गुदा और कोष्ठमें वि. | पृष्ठपावादरं मृज्यात्करैरुष्णरधोमुखम् १३ दाह, मुष्क और वंक्षण में बेदना होती है। केशेषत्क्षिप्यधुन्वीत भीषयेदयालदष्ट्रिभिः शस्त्रोल्काराजपुरुषस्तिरेति तथा ह्यथः ।। हृदय में रुकजामेके कारण शूल करती हुई। ३२ पाणिवस्त्रैर्गलापीई कुन म्रियते यथा । वाय इधर उधर घूमती है। प्राणोदाननिरोनादि सुप्रसिद्धसरायनः ।। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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