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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१७२) अष्टांगहृदयम् । कर जडता आग्निमांद्य आदि दोषों को उ- अर्थ-अनुवासन वस्ति देने के तीसरे त्पन्न न करै तो उसके निकालने का वा पांचवें दिन दुपहर होने के कुछ ही . यत्न न करे और रात्रि में निराहार दूसरे पीछे शुभ पुष्य नक्षत्र में स्वस्तिवाचनादि दिन प्रातःकाल सोंठ और धनिये का कुछ मंगलकार्य करने के पीछे दोष, औषध, गरम काथ अथवा केवल थोड़ा गरम जल | सात्म्य, बल आदि की विवेचना करके तथा पिलाना चाहिये। वैद्यकशास्त्र में कुशल अन्य विद्वानों की अनुवासन का काल । संमति ग्रहण करके यत्नपूर्वक ऐसे रोगीको अन्वासयेत्तृतीयेऽह्नि पंचमे वा पुनश्च तम्। निरूहण वस्ति देवे जिसके शरीर पर तेल यथा वा स्नेहपक्तिस्यादतोऽत्युल्बणमारुतान् व्यायामानित्यान्दीप्तानीन रूक्षांश्चप्रतिवासरम लगाया गया हो, पसीना निकाला गयाहो, अर्थ-उसी रोगी को तीसरे वा पांच जो मलमूत्रोत्सर्ग से निवृत हो लिया हो वें दिन अथवा जितने दिन में पहिले स्नेह | और जिसको थोडी भूख भी लगरही हो । का पाक हो उतने दिन पीछे फिर अनुवा | निरूह कल्पना । सन बस्ति देनी चाहिये । तथा जो रोगी | क्वाथयेदिशतिपलं द्रव्यस्याऽष्टौफलानि च अत्यन्त वात दोष से युक्त है, वा जिन्हें कस ___ अर्थ-निरूहण के पीछे वस्तिकल्प में रतकरनेका अभ्यासहे वा जिनकी जठराग्नि कहेहुए द्रव्य बीस पल और आठ मेनफल प्रदीप्त है वा जो रूक्ष प्रकृति के हैं उनको | इनको सोलह गुने पानी में औटाकर चौनित्यप्रति अनुवासन देना चाहिये । थाई शेष रहने पर पी लेना चाहिये । ..निरूह का काल। दोषपरता से स्नेह का प्रमाण | इति स्नेहस्त्रिचतुरैः स्निग्ध स्रोतोविशुद्धथे। ततः क्वाथाच्चतुर्थाशनेहं वातेप्रकल्पयेत् । निरूहं शोधनं युंज्यादस्निग्धे स्नेहनं तनोः॥ पित्तस्वस्थेच षष्ठांशमष्टमांशं कफाधिके । अर्थे-पूर्वोक्त रीतिसे तीन चारबार अ- अर्थ-वात की अधिकतामें क्वाथक नुवासन वस्तिके प्रयोग से शरीर के स्निग्ध | साथ चौथाई स्नेह, पित्त की अधिकता में होजाने पर स्रोतों की विशुद्धि के निमित्त । तथा स्वस्थ अवस्था में षष्टांश और कफकी शोधन निरूहका प्रयोग करे । परन्तु जोश अधिकतामें अष्टमांश स्नेह का प्रयोग करना रीर यथावत् स्निग्ध न हुआ हो तो फिर स्ने । चाहिये । अर्थात् सब प्रकार से शुद्ध निरूहन प्रकरणमें कही हुई रीतिसे स्नेहन करे। हण होने पर २४ पल, वातकी अधिकता निरूहण वस्ति की विधि । - पंचमेऽथ तृतीये वा दिवसे साधके शुभे । में छः पल, पित्त और स्वस्थावस्था में ४ पल मध्याह्ने किंचिदावृत्ते प्रयुक्त बलिमंगले ३६ | औ अभ्यक्तस्वेदितोप्सृष्टमलं नाऽतिबभक्षितम अन्य नियमादि। अवक्ष्य पुरुषं दोषभेषजादीनि चादरात ३७ सर्वत्र चाऽष्टमं भागंकल्काद्भवति वा यथा। मस्ति प्रकल्पयेद्वैद्यस्तद्विद्यैर्बहुभिः सह । । नाऽत्यच्छसांद्रता बस्तेः For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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