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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७१२). अष्टांगहृदय । . पैत्तिक में कर्तव्य । स्नेहानुवासन का वर्णन । बस्तिः क्षाराम्लक्ष्णिोष्णलवणः- सिद्धिर्बस्त्यापदामेवं नेहबस्तेस्तु वक्ष्यते । पैत्तिकस्य वा ॥ ३३ ॥ अर्थ-यहां तक निरूह वस्तियों की गुदं दहन लिखन् क्षिण्वन्करोत्यस्य... परिस्रवम् । व्याप्त सिद्धि का वर्णन किया गया है । संविदग्धं स्रवत्यस्र वर्णैःपित्तं च भूरिभिः ॥ अब यहां से स्नेहवस्ति ( अनुवासन ) बहुशश्चातिबेगेन मोहं गच्छति सोऽसकृत् की व्याप्तासिद्धि का वर्णन करेंगेरक्तापत्तातिसारनी क्रिया तत्र प्रशरयते । वाताधिकयोग में चिकित्सा । दाहादिषु त्रिवृत्कल्कमृद्धोकावारिणा पित् शीतोल्पो वाऽधिक वाते पित्तेत्युष्णाकफेमृदु तद्धि पित्तशकद्वातान्मृत्वादाहादिकान्जयेत् बिशुद्धश्च पिवेच्छीतां यवागूशर्करायुताम् | अतिभुक्ते गुवर्चः संचयेऽल्पबलस्तथा । ज्यादातीबरिक्तस्यक्षीणविट्कस्यभोजनम् स्तंभोरुसदनाध्मानज्वरशूलांगमर्दनैः३०॥ दत्तस्तैरावृतस्नेहो नायात्यभिभवादपि । माषयूषेण कुल्माषान्पानं दध्यथवासुराम् ।। पार्यरुग्वेष्टनैर्विद्याद्वायुना नेहमावृतम् । अर्थ-क्षार, अम्ल, तीक्ष्ण, उष्ण और निग्माम्ललवणोष्ण स्तं रानापतिद्रुतैलिकै लवण से युक्त वस्तिका प्रयोग करना अथवा | सौवीरकसुराकोलफुलत्थयवसाधितै । पित्तवाले रोगी को वस्ति देना, इनसे गुदा निरूहैनिहरेत्सम्यक् समूत्रैः पंचमूलकैः ताभ्यामेव च तैलाभ्यां सायं भुक्त में दाह, खुरचन और फेंकने की सी दशा ऽनुवासयेत् । होकर परिस्राव होने लगता है । इस स्राव अर्थ-वातकी अधिकता में अल्पमात्रामें में विदग्ध रक्त तथा अनेक वर्षों से युक्त शीतलवस्ति, पित्तकी अधिकता में अति. पित्त निकलता है, यह स्राव बहुत वेग से उष्ण वस्ति, और कफकी अधिकता में अति और बार बार होता है इससे रोगी अचेत मृदु वस्ति दीजाय, तथा अतिमुक्त में मात्रा होजाता है । इस दशा में रक्तपित्तनाशिनी वा वीर्य दोनों प्रकार से भारी वस्ति और तथा रत्ता तिसारनी चिकित्सा करना उत्तम मलके संचय में मात्रा और वीर्य दोनों से है । दाह और बेचैनी में निसोथ के कलक अल्पबल वाली वस्ति दी जाय,तो वह वस्ति को दाखके काढे के साथ पान करावै इस शीतादि कारण से कुपितदोष द्वारा आवृत से पित्त, विष्टा और वायु निकलकर दाहा- होने से गुदा के मार्ग द्वारा प्रत्यागत नहीं दिक नष्ट होजाते हैं । जो रोगी विरंचन से होती है और इससे निम्नलिखित लक्षण शुद्ध होगया हो उसे शर्कग मिलाकर ठण्डी प्रकट होते हैं । वायुद्वारा स्नेह से आवृत यवागू देना चाहिये । अतिरिक्त और क्षीण वस्ति में स्तंभता, दोनों उरुओं में शिथिल. पुरीप वाले रोगी को उरद के यूष के साथ | ता, प्राध्मान, ज्वर, शूल, अंगमर्द, पार्श्व कुलमाष खाने को दे । तथा दही वा मद्य | वेदना और अंगडाई आदि उपद्रव होते हैं। . पाने को देवें॥ | बातावृत स्नेहबस्ति को पीछे लिखे हुए For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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