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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ०८ चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत । १५९७ ) अतीस, मोथा, पाठा, जवाखार, दारुहलदी | बत्ती बनावै । अथवा सोंठ, मेनफल, घर सोंठ, जटामासी, चीता, और देवदारु इन | का धूआं, सरसों इनको पीसकर गुड और सब द्रव्यों को पीसकर चांगेरी के रस में | गोमूत्र में सानकर बत्ती बनाकर गुदा घृतको पकावै, यह घृत त्रिदोषनाशक तथा | में रक्खै । अर्श, अतिसार, ग्रहणीरोग, पांडुरोग, गुदामें उक्तद्रव्योंका चूर्ण । ज्वर, अरुचि, मूत्रकृछू गुदभ्रंश, वस्ति का | एतेषामेव वा चूर्ण गुदे नाज्या विनिर्धमेत्। आनाह, प्रवाहण, पिच्छास्त्राव, तथा अर्श अर्थ-उक्त सब द्रव्योंका चूर्ण एक नली के शल में देने से यह परम गणकारक में भरकर गुदाके भीतर प्रविष्ट करदेना व्यत्यासमें मधुराम्लयोनना। चाहिये । व्यत्यासान्मधुराम्लानि शीतोष्णानि- स्निग्ध वस्तिप्रयोग। च योजयेत्। नित्यमग्निवलापेक्षी जयत्यशःकृतान् गदार्ने तद्विघाते सुतक्ष्णिं तु बस्ति स्निग्ध प्रपीडयेत् अर्थ-जठराग्नि के बल के अनुसार वि ऋजू कुर्याद्रुदशिरो विण्मूत्रमरुतोऽस्य सः। पर्याय भावमें मधुर अम्ल तथा शीतल और भूयोऽनुवंधे वातघ्नैर्विरेच्यःनेहरेचनैः ॥ अनुवास्यश्च रौक्ष्याद्धि संगो मारुतवर्चसोः उष्ण सेवन करने से अर्शजानित सब उपद्रव ___ अर्थ-जो उक्त चूर्णके प्रयोग से कुछ नष्ट होजाते हैं। लाभ नहो तो अत्यन्त तीक्ष्ण स्निग्ध बस्ति उदावर्त में स्वेदादि । का ऋजुभाव में प्रयोग करना चाहिये । उदावर्तिमभ्यज्य तैलैः शीतज्वरापहैः।। सुस्निग्धैः स्वेदयेत्पिडैवर्तिमस्मै गुदे ततः ॥ इस वस्तिसें गुदनाडी का ऊपर वाला भाग अभ्यक्तां तत्करांगुष्ठसन्निभामनुलोमनीम् । विष्टा, मूत्र और अधोवायु का अनुलोमन दद्याच्छयामात्रिबंदतीपिप्पलीनीलिनीफलैः।। होताहै । इसपर भी यदि फिर अनुबंध हो विचूर्णितैलिवणैर्गुडगोमूत्रसयुतैः। तो वातनाशक स्नेहविरेचन और अनुवासन तन्मागधिकाराठग्रहधूमैः ससर्षपैः ॥ | का प्रयोग करे, क्योंकि रूक्षता से अधोवायु ___ अर्थ-अर्शरोगी यदि उदावर्त से पीडित और मलका विबंध होताहै। हो तो शीतज्वरनाशक तेल से अभ्यंग करके अतिस्निग्ध पिंडस्वेद से स्वेदित करके कल्याणकक्षार। रोगी की गुदा में तेल लगाकर नीचे लिखे त्रिकटुत्रिपटुश्रेष्ठादत्यरुष्करचित्रकम् ॥ जर्जरं स्नेहमूत्राक्तमंतधूम विपाचयेत् । द्रव्यों की बत्ती बनाकर प्रवेश करे । यह शराबसंधौ मल्लिप्ते क्षारः कल्याणकावयः बत्ती रोगी के अंगूठे के समान अनुलोमन- स पीतः सर्पिषा युक्तो भक्त वाकारी होनी चाहिये । श्यामा, दंती, निसोथ स्निग्धभोजिना। उदावर्तविबंधार्थीगुल्मपांडूदरकृमीन् ॥ पीपल, नीलनी फल, सेंधानमक, विडनमक | मूत्रसंगाश्मरीशोफहृद्रोगग्रहोगदान् । इनको पीसकर गुड और गोमूत्र मिलाकर | मेहलीहरुजानाहश्वासकासांश्च नाशयेत् । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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