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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५५८) अष्टांगहृदय । - अर्थ-त्रिकुटा (सौंठ, मिरच, पीपल), | पर उतारकर छानले, फिर इसमें ८० पल त्रिपटु ( सेंधानमक,कालानमक, विडनमक) | गुड, पिसी हुई त्रिकुटा ८ पळ, मिलाकर, श्रेष्टा [ हरड, बहेडा, आमला ], दंती, भि- | किसी पात्रमें भरकर उसका मुख बंद करदे लावा और चीता इनको गोमूत्र के साथ पीस | और एक महिने तक रक्खा रहनेदे । यह कर घी मिलाकर एक मृत्तिकाकें पात्रमें शुद्ध जठराग्नि पाचनशक्ति पैदा करताहै 'भरकर शराबसंपुट करके ऐसी रीतिसे और अनुलोमन करनेवाला होनेके कारण मृत्तिका से लपेटे कि धुंआं बाहर न निक- अर्श, प्लीहा, गुल्म और उदररोगों को दूर लने पाव । इसको कंडोंकी आगमें पकावे। करदेता है। ठंडा होनेपर निकाल लेवे । यह कल्याणक अर्श पर चुक्र । नामक क्षार होताहै । इसकों घृतके साथ पचेत्तुलां पूतिकरंजबल्कान् । वा अन्नके साथ सेवन करे और घृतप्लुत द्वे मूलतश्चित्रककंटकार्योः । द्रोणत्रयेऽपां चरणावशेषे । भोजन करे तो उदावर्त, विबंध, अर्श,गुल्म पूते शतं तत्र गुडस्य दद्यात् ॥ १४५ ॥ रोग, पांडुरोग, उदररोग, कृमिरोग, मूत्रवि- पालकं च सुचूर्णितं त्रिजात-। घात, अश्मरी, सूजन, हृदयरोग, ग्रहणीरोग त्रिकटुग्रंथिकदाडिमाश्मभेदम्। प्रमेह, प्लीहा, बेदना, आनाह, श्वास और परपुष्करमूलधान्यचव्यं । हपुषामाकमम्लवेतसं च ॥१४६ ॥ खांसी ये सब नष्ट होजाते हैं। शीतीभूतं क्षौद्रविशत्यपेत-। . अन्य उपाय । माद्राक्षाबीजपूरार्धकैश्च । सर्वच कुर्याद्यत्प्राक्तमर्शसां गाढवर्चसाम् ॥ | युक्तं कामं गंडिकाभिस्तथेक्षो। सर्पिः पात्रे मासमात्रेण जातम् ॥ . अर्थ-मलके गाढे होनेकी चिकित्सा चुकंकृकचमिवंदगुर्नाम्नांवन्हिदीपनंपरमम् । में जो पहिले उपाय लिखे गये हैं वे भी | पांडगरोदरगुल्मप्लीहानाहाश्मकृच्छ्घ्न म् । सब इस रोगमें प्रयुक्त करने चाहिये। अर्थ-तिकरंजकी छाल एक तुला, मस्सोंकी चिकित्सा। चीते और कटेरी की जड दो तुला द्रोणेऽपां पूतिवल्कद्वितुलमथ पचे. इनको तीन द्रोण पानीमें पकावै त्पादशेषे च तस्मिन् देयाशीतिर्गुडस्य प्रतनुकरजसो जन चौधाई शेष रह जाय तव उतार व्योषतोऽष्टौपलानि ।। कर छानले और इस काथमें गुड सौ पल एतन्मासेन जातं जनयति परमा डालदे और त्रिजात [ दालचीनी, इलायची मूष्मणः पक्तिशक्ति शुक्तं कृत्वाऽनुलोम्यं प्रजयति गुदज तेजपात ) त्रिकुटा, पीपलामूल, अनार की प्लीहगुल्मोदराणि ॥ १४४ ॥ छाल, पाखानभेद, नागरमोथा, पुष्करमूल, अर्थ-पूतिकरंजकी ८०० तोले छाल | धनियां, चव्य, हाऊबेरं, अदरख, अमलवेत एक द्रोण जलमें पकावे, चौथाई शेष रहने | प्रत्येक एक एक पल लेकर बारीक पीसकर For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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