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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ५५६ ] अष्टांगहृदय । | साथ प्याज का सेवन अथवा केवल प्याज के खाने से अत्यन्त दूषित रक्त और वायु नष्ट हो जाती है । वाताविय अर्श में कर्तव्य | बातोल्वणानि प्रायेण भवत्यस्रेऽतिनिःसृते । अर्शास तस्मादधिकं तज्जयं यत्नमाचरेत् ॥ अर्थ - रक्त के अत्यन्त निकलने पर सब प्रकारके अर्श रोग में वायु कुपित हो - जाता है इसलिये वायु की शांति के लिये विषेश यत्न करना चाहिये | अर्श में शीतोपचार । दृष्ट्वाऽस्रपित्तं प्रबलमवलौ च कफानिलौ । शीतोपचारः कर्तव्यः सर्वथा तत्प्रशांतये ॥ अर्थ - जो रक्त पित्त प्रवल हो और कफ वात निर्बल हो तो उन को प्रशमन ' करने के लिये शीतोपचार अर्थात् ठण्डी चिकित्सा करना चाहिये । अन्य उपाय । तावदेव समस्तस्य स्निग्धोष्णैस्तर्पयेत्ततः । रसैः कोष्णैश्च सर्पिर्भिरबपीडकयोजितैः ॥ सेचयेत्तं कवाष्णैश्च कामं तैलपयोघृतैः । अर्थ - जो ऊपर कहे हुए किसी उपाय से भी अर्शका प्रशमन न हो तो स्निग्धो Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० कल्कीकृतं मोचरसं समंगां चंदनोत्पलम् ॥ प्रियंगु कौटज बीज कमलस्य च केसरम् । पिच्छाबस्तिरयं सिद्धः सघृतक्षौद्रशर्करः ॥ प्रवाहिका गुदभ्रंश रक्तस्रावज्वरापहः । अर्थ -जवा से की जड, कासकी जड, सेमर के फूल, ढाक, गूलर और पीपलकी कोंपल, इनमें से प्रत्येक दो पल इन सबका कल्क करके तीन प्रस्थ जल और एक प्रस्थ दूध में पका । जब दूध शेष रहजाय तब उतार कर छानले फिर इस काथ में मोचरस, मजीठ, चंदन, उत्पल, प्रियंगु, इन्द्रजौ, कमलकेसर पीसकर प्रत्येक एक एक तोले मिलादेवै फिर धी, शहत और शर्करा मिलाकर पिच्छावस्तिका प्रयोग करे इससे प्रवाहिका, गुदभ्रंश, रक्तस्राव और ज्वर दूर होता है । अनुवासनविधि | यष्ट्याहवपुंडरीकेण तथा मोचरसादिभिः ॥ क्षीरद्विगुणितः पक्को देयः स्नेहोऽनुवासनम् अर्थ - मुलहटी, पुंडरीक, और ऊपर कहे हुए मोचरसादि का कल्क डालकर दूंने दूधके साथ पकाया हुआ स्नेह अनुवासन वस्ति में हित है । मधुकादि घृत | मांसरस और ईषदुष्ण घृतपान द्वारा तर्पण करना चाहिये तथा रोगानुत्पादनीया - ध्यान में कहे हुए ईषदुष्ण तेल दूध और घी के द्वारा अवपीडन करे । पिच्छावस्ति । वाकुशकाशान मूलं पुष्पं च शाल्मलेः न्यग्रोधोदुंबराश्वत्थशुंगाश्च द्विपलोम्मिताः त्रिप्रस्थे सलिलस्यैतत्क्षीरप्रस्थे च साधयेत् श्रीशेषे कषाये च तस्मिन्पूते विमिश्रयेत् |वाला, मजीठ, बेलगिरी, चंदन, चव्य, For Private And Personal Use Only मधुकोत्पलरो ब्रांबुसमंगां बिल्वचंदनम् ॥ चत्रिकातिविषामुस्तं पाठा क्षारो यवाग्रजः दार्वित्वनागरं मांसी चित्रको देवदारु च ॥ चांगेरिस्वरसे सर्पिः साधितं तैस्त्रिदोषजित् अशौतिसारग्रहणीपांडुरोगज्वरारुचौ ॥१३२॥ मूत्रकृच्छ्रे गुदभ्रंशे वस्त्यानाहे प्रवाहणे । पिच्छास्त्रात्रेऽशसां शूले देयं तत्परमोषधम् अर्थ - मुलहटी, नीलकमल, लोध, नेत्र
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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