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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रस्थान भाषाटीका (७) और वातवर्द्धकह ऊषण कफनाशक और वात | अन्य गुणोंके होनपर भी उष्ण और शीत पित्तवर्द्धकहै, कषाय कफपित्तनाशक और बात गुणके उत्कर्षसे द्रव्यमें दोही प्रकारका वीर्य बर्द्धकहै। कहाहै एक उष्णवीर्य, दूसरा शीतवीर्य । द्रव्यको त्रिविधत्व ! द्रव्यका विपाक । शमनं कोपनं स्वस्थहितं द्रव्यमितित्रिधा त्रिधा विपाको द्रव्यस्य स्वाद्वम्लकटु अर्थ--द्रव्य शमन कोपन और स्वस्थहित | कात्मकः ॥ १७॥ इन भेदोंसे तीन प्रकारका होताहै । अन्य प्र- अर्थ-यद्यपिरस छःहैं परन्तु द्रव्योंका विकारसे तो दो अथवा अनेक प्रकारका होता पाक स्वादु, अम्ल और कटुक इन तीनही है । जो पित्तादिक दोषोंको शमन करताहै। प्रकारका होताहै । " जाठरणाग्निना योगाबह शमन कहलाताहै । जैसे तेल स्नेह, औदार्य द्यदुदेति रसांतरम् । रसानांपरिणामान्तो स और गौरव गुणोंके योगसे विपरीत गुणवाले विपाक इति स्मृतः” ॥ जाठराग्निके योगसे वायुका शमन करताहै । घृत मधुर, शीतल रसोंके परिणामान्तमें जो अन्य रस उत्पन्न और मन्द गुणोंके योगसे विपरीत गुणवाले होताहै उसे विपाक कहतेहैं । मधुर और पित्तको शमन करताहै । मधु रौक्ष्य, तीक्ष्ण लवण रसका विपाक मधुर; अम्लरसका अम्ल कषाय गुणोंक योगसे तद्विपरीत गुणवाले कफ और तिक्त कटु कषायका कटावेपाक होता है को शमन करताहै । द्रव्यके गुण । जो द्रव्य वातादिक दोष, रसादिक धातु गुरुमंदहिमस्निग्धश्लक्ष्णसांद्रमृदुस्थिराः। और मूत्रादिक मलोंको प्रकुपित करताहै वह गुणाः ससूक्ष्मविशदा विंशतिः सविपकोपन कहलाताहै जैसे:-यवक पटलादि।। र्ययाः ॥ १८ ॥ . जो द्रव्य दोष, धातु, और मलोंको अपने अर्थ--१गुरु, २ मन्द, ३ हिम, ४स्निग्ध, प्रमाणमें स्थित रखकर स्वस्थताका अनुवर्तन ५ श्लक्ष्ण, ६ सान्द्र, ७ मृदु, ८ स्थिर, करताहै वह स्वस्थहित अर्थात् तन्दुरुस्त पु- ९ सूक्ष्म और १० विशद । तथा इनमें से रुषोंके लिये हितकारी होताहै जैसे रक्तशाली, प्रत्येकके विपरीत गुणवाले ११ लघु, १२ साठीचावल, जौ, गेंहू, जांगलमांसादिक । । तीक्ष्ण, १३ उष्ण, १४ रूक्ष, १५ खर, द्रव्यका वीर्य । १६ द्रव, १७ कठिन, १८ सर, १९ स्थूल ॥ ११ ॥ उष्णशीतगुणोत्कर्षात्तत्र वीर्य आर २० पिच्छिल इस तरह सब मिलाकर द्विधा स्मृतम् । द्रव्यमें वीस गुण होते हैं। .. ___ अर्थ-द्रव्यमें अनेक गुण होतेहैं, परन्तु रोग का कारण । संपूर्ण जगत् अग्नि और सोमात्मक इनदोही कालार्थकर्मणां योगो हीनमिथ्यातिगुणोंसे व्याप्तहै, इसलिये संपूर्ण वस्तुओंके मात्रकः । सम्यग्योगश्च विज्ञेयो रोगामुख्यदोही विभाग होसकतेहैं उष्ण और शीत। रोग्यैककारणम् ॥ १९ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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