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अष्टांगहृदय ।
पाक निवारण |
पार्क व वारयेद्यनात्सिद्धिः पक्कं हि दैविकी अपि चाऽऽशु विदाहित्वाद्विद्वधिः
सोऽभिधीयते । सति चालोचयैन्मे हे प्रमेहाणां चिकित्सितम् अर्थ - जैसे होसकै वैसे ऐसा यत्न करना चाहिये जिससे विद्रधि पकने न पावै । क्यों कि पकजाने पर अच्छा होना वा न होना दैवाधीन है, वैद्यके बसकी बात नहीं है । इसमें शीघ्र ही विदाह अर्थात् जलन पैदा होजाती है इसीलिये इसे विद्रधि कहते हैं । इसमें यदि प्रमेहरोग उत्पन्न होजाय तो प्र महोक्त चिकित्सा करनी चाहिये ( किसी किसी पुस्तक में 'दैविकी' की जगह ' दौहिकी' पाठ करके यह अर्थ किया गया है कि इस रोग का अच्छा होना वा न होना शरीरकी अवस्था पर निर्भर है ।
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स्तनविद्रधि में उपाय ॥ स्तनजे व्रणवत्सर्वं नत्वेनमुपनाहयेत् । गाउयेत्पालयन्स्तन्यवाहिनीः कृष्णचूचुकी ॥ सवांस्वामाद्यवस्थासु निर्दुहीत च तत्स्तनम् ।
अर्थ - जो विद्रधि स्तन में होती है उस में उपनाह को छोड़कर सब प्रकार की चिकित्सा करना चाहिये । जो भेदन की आवश्यकता हो तो स्तन्यवाहिनी सिरा और स्तनों के काले भप्रभागों की रक्षा करता हुआ नश्तर लगाबै । सब प्रकारकी विद्रधिओं की अपक्वावस्था में स्तनों से दूध निकलवाते रहना चाहिये । अत्र यहांसे आगे वृद्धि की चिकित्सा का वर्णन है । वृद्धिचिकित्सा | शोधयेत्रिवृतास्निग्धं वृद्धौ स्नेहै चलात्मके ॥
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कौशाम्रतिल्व करेंडसुकुमारक मिश्रकैः । अर्थ - वातज वृद्धिरोग में त्रिवृतादि वृत द्वारा अच्छी तरह से स्निग्ध करके कोशान तिल्वक और अरंड के साथ सिद्ध किया हुआ स्नेह, सुकुमारक घृत और गुरुमाच - कित्सितोक्त मिश्रित स्नेहों द्वारा चिकित्सा करे ।
वातनाशक निरूहादि । ततोऽनिलघ्नर्निर्यूहकल्क स्नेहैर्निरूहयेत् ॥ रसेन भोजितं यष्टितैलेनान्यासयेदनु । स्वेदप्रलेपा वातघ्नाःपक्के भित्त्वा व्रणक्रियाः॥
अर्थ - तदनंतर वातनाशक काथ, कल्क और स्नेह द्वारा निरूहण वस्तिका प्रयोग करे । निरूहण के पीछे मांसरस का पथ्य देकर मुलहटी के तेलसे अनुवासन करै । तथा वातनाशक स्वेद और प्रलेप करै । फिर पकजाने पर घाबके समान चिकित्सा करे ।
पित्तज वृद्धि का उपाय । पित्तेरक्तोद्भवे वृद्धावामपक्के यथायथम् । शोफव्रणक्रियां कुर्यात् प्रततं च हरेद्सृक् ॥
अर्थ-पित्तज और रक्तज वृद्धि में चाहे कच्ची वा पक्की हो सूजन और व्रण के अनुसार यथायोग्य चिकित्सा करे । तथा निरंतर रक्तको निकालता रहै ।
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कफज वृद्धि में उपाय ।
गोमूत्रेण पिवेत्कल्कं ष्मिके पतिदारुजम् । विम्लापनादृते चाऽत्र श्लेष्मग्रंथिक्रमो हितः पक्के च पाटिते तैलमिष्यते ब्रणशोधनम् । सुमनोरुष्करांकोल्लसप्तपर्णेषु साधितम् ॥ पटोलर्निबरजनीविडंगकुटजेषु च । अर्थ-कफज वृद्धिरोग में गौके मूत्र के