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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ०१३ चिकित्सितस्थान भाषा-कासभेता (६०१) विद्रधिमें उपनाह ! लेने लगे तो ऐसा करना चाहिये कि विद्रधि पच्यमानं च कोष्ठस्थं बहिरुन्नतं ॥ | दस बारह दिनतक और किसी प्रकार की सात्वोपनाहयेत् चिकित्सा न करके रोगी को पथ्य आहारादि __ अर्थ-जो विद्रधि कोष्ठ में हो और ऊंची से रक्खे । यदि क्लेद अच्छी तरह न निकहो गई हो तथा पच्यमान अवस्था में हो उस ले तो वरणादि गणोक्त औषधोका ईषदुष्ण पर उपनाह अर्थात् पुलटिस वांधै । काथ अथवा मीठे सहजने का काथ, अथवा विद्रधि का भेदन । शूले स्थिते तत्रैव पिंडिते। मीठे सहजने के काथसे करीहुई यवागू तत्पार्श्वपीडनात्सुप्तौ दाहादिष्वल्पकेषु च।। पान करावै । पकः स्याद्विदाधि भित्त्वा व्रणवत्तमुपाचरेत्।। विद्रधि पर यूष । अर्थ-जव कोष्ठकी विद्रधि पिंडाकार हो | यवकोलकुलत्थोत्थयूषैरन्नं च शस्यते ॥ जाय, और जहां वह हो उसी जगह वेदना अर्थ-इस रोगपर जो, बेर और कुलथी के यूषके साथ अन्न का भोजन भी हितकारीहैं होती हो, और पासके स्थानको हाथसे दावने दसदिनपीछे शोधनादि । पर सुप्ति अर्थात शून्यता का अनुभव हो, ऊर्ध्व दशाहात्त्रायंतीसर्पिषा तैल्वकेन वा। और दाह ऊष आदिमें कमी हो तब जान शोधयेद्वलतःशुद्धःसक्षौद्रं तिक्तकंपिवेत् ॥ लेना चाहिये कि विद्रधि पक गई है, तव अर्थ-दस दिन बीत जानेपर रोगी के उसे चीरकर घाव की तरह चिकित्सा करै। बलके अनुसार त्रायंती घृत वा तैल्वक घृत भीतर की विद्रधि के चिन्ह। पान कराके विरेचन करावे । विरेचन से अंतर्भागस्य चाव्यतच्चिद्रं पकस्य विद्धेः॥ । शुद्ध होनेपर रोगी को शहत मिलाकर अर्थ-कोष्ठस्थ पक्व विद्रधिके जो लक्षण तिक्तक घृत का सेवन करावे । होते हैं वेही अंतर भागमें स्थित पकी हुई __उक्तरोगमें गुल्मवत् चिकित्सा । सर्वशो गुल्मवच्चैनं यथादोषमुपाचरेत् । विद्रधि के लक्षण होते हैं | ___ अर्थ--विद्रधि रोग में सब प्रकार से दोष विद्रधिमें दोषविशेष की अपेक्षा । पक्कः स्रोतांसि संपूर्य सयात्यूलमधोऽथवा के अनुसार गुल्मरोग के समान चिकित्सा स्वयं प्रवृत्तं तं दोषमुपेक्षेत हिताशिनः करनी चाहिये। दशाहं द्वादशाहं वा रक्षन् भिषगुपद्रवान् । विद्रधि पर गुग्गुलयोग । असम्यग्वहति क्लेदे वरणादिसुखांभसा ॥ सर्वावस्थासु सर्वासु गुग्गुलुं विद्रधीषु च ॥ पाययन्मधुशिग्रं वा यवागू तेन वा कृताम् । कषायैर्योगिकैयुंज्यात्स्वैः स्वैस्तद्वच्छिलाजतु - अर्थ-विद्रधि पककर संपूर्ण स्रोतों को अर्थ-सब प्रकार की विद्रधियों में सब भरकर अपने आप ऊपर को वा नीचे को अवस्थाओं में यथायोग्य कषायों के साथ प्रबृत हो अर्थात् विद्रधि का पूय और रक्ता- गूगल वा शिलाजीतका प्रयोग करना दि क्लेद पदार्थ मुखद्वारा वा गुदाद्वारा निक- । चाहिये । . . For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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