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अ. २२
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(१७७)
लोय को काथ, कल्क वा चूर्ण द्वारा सेवन | रसके साथ लेलीतकी की चर्वी का पान करे।
करने से अति स्थिरहुई खुड्वात जाती __' स्नेहन के पीछे रूक्षण । रहती है, परन्तु इस प्रयोग के सेवन में यथाऽहस्नेहपीतं च वामितं मृदु रूक्षयेत् ब्रह्मचर्य से रहना उचित है। . अर्थ-यथायोग्य स्नेह द्वारा मृदु विरेचन | वाह्यचिकित्सा का विधान । देकर वातरक्त रोगी को रूक्षण करीव । इत्याभ्यंतरमुद्दिष्टं कर्म बाहामतः परम् २०
शूलयुक्त वातरक्त की चिकित्सा । अर्थ-वातरक्त की आभ्यंतर चिकित्सा त्रिफलाव्योषपत्रलात्वपक्षशिचित्रकं वचाम् इस प्रकार कही गई है, अब वाह्मचिकित्सा बिडंगं पिप्पलीमूलं लोमशं वृषकं त्वचम् | का वर्णन करते हैं। ऋद्धिं लांगलिक चव्यं समभागानि पेषयेत्
पकाई हुई राल । कल्कैलिप्त्वायसी पात्री मध्याह्नभक्षयदिदम् ।
आरनालाढके तैलं पादसर्जरसं शृतम् । वाताने सर्वदोषेऽपि परं शूलान्विते हितम् | __ अर्थ-त्रिफला, त्रिकुटा, तेजपात, -
प्रभूते खजितं तोये ज्वरदाहार्तिनुत्परम् २१
अर्थ--एक आढक कांजी में चौथाई तेल इलायची, वंशलोचन, चीता, वच, बायवि
और उसमें चौथाई राल डालकर पकावै फिर डंग,पीपलामूल, काकजंघा, अडूसे की छाल,
इस तेल को बहुत से पानी में मथकर ल. दालचीनी, ऋद्धि, कलहारी, चव्य इन
गाने से ज्वर, दाह,वेदना शांत होजाती है। सबको समान भाग लेकर पीस डाले, इस
पिंडतल । कल्क को एक लोहे के पात्र में लेपन करदे
समधूच्छिष्टमंजिष्टं ससर्जरससारिवम् । . और दुपहर के समय इस कल्क का सेवन पिंडतलं तदभ्यंगाद्वातरक्तरुजापहम् २२ करे यह सब दोषों से युक्त वेदनावाले वात- ___ अर्थ-मोम, मनीठ, राल और सारिवा रक्त को नष्ट करदेता है।
इनके कल्क के साथ पूर्वोक्तं तेल को पकावै, __ अन्य क्वाथ।
इस पिंडनामक तेल के लगानेसे वातरक्त से कोकिलाक्षकनियूहः पीतस्तन्छाकभोजिना | उत्पन्न हुई बेदना जाती रहती है । । कृपाभ्यास व क्रोधं वातरक्तं मियच्छति ।
दशमूलादि घृत । .. अर्थ-कृपा करने का अभ्यास करने से
| दशमूले शृतं क्षीरं सद्यः शूलनिवारणम् । जैसे क्रोध शांत होजाता है, वैसेही कोकला- | परिषेकोऽनिलंपाये तद्वत्कोष्णेन सर्पिषा१३ क्षी के शाक को कोकलाक्षी के काढे के ___ अर्थ-दशमूल डालकर औंटाये हुए दूध साथ पीने से वातरक्त नष्ट होजाता है। का परिपेक करनेसे वेदना तत्काल जाती
खुडरोग पर प्रयोग। रहती है । वाताधिक्य वातरक्त में कुछ गरम पंचमूलस्य भाज्या वा रसैलेलीतकीं वसाम् | घी के परिषेक से भी वही फल होता है। खुडं सुरूढमप्यंगे ब्रह्मचारी पिबन् जयेत् । स्तंभादि में उपाय । ...
अर्थ-पंचगूल के रस, वा आमले के | स्नेहैर्मधुरसिद्धर्वा चतुर्भिः परिषेचयेत् ।।
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