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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ९४४) अष्टांगहृदय । अ. ३७ घोटकर लेप करना चाहिये । यह विच्छ । अर्थ-सब तरह के बीच के दारुण का बिष दूर करने की प्रधान औषध है। बिषों पर दही और घी पान कराना चाहिये। ऊँट का दांत और शैवाल पीसकर लगाने | सिराव्यध,वमन, अंजन और नस्यका प्रयोग से विच्छू का बिष दूर होजाता है । करना चाहिये तथा वातनाशक उष्ण, अन्य गोली। स्निग्ध, अम्ल और मधुर द्रव्य भोजन के हिंगुमा हरितालेन मातुलुंगरसेन च ३५ लोहा लेपांजमाभ्यां गुटिका परमं वृश्चिकापहा अर्थ-हींग और हरिताल को बिजौरे बीकेविष पर लेप । नागरं गृहकपोतपुरीष के रस में घोटकर लेप और अंजन द्वारा वीजपूरकरसो हरितालम् । प्रयोग करे, ये गोलियां बिच्छू का बिष दूर सैंधव च विनिहत्यगदोऽयं करने में परमोत्तम है। लेपतोलिफुल विषमाशु ॥ ४० ॥ दंशलेपन । अर्थ-सोंठ, पालतू कबूतर का विष्टा, करंजार्जुनशैलूनां कटभ्याः कुडजस्य च :| बिजौरे का रस, हरताल, और सेंधानमक शिरीषस्य पुष्पाणि मस्तुना दंशलेपनम् । | इन सब द्रव्यों को पीसकर लेप लगाने से ___ अर्थ-कंजा, अर्जुन, हेसुआ, गोकर्णी, सब प्रकार के बिच्छुओं का विष शीघ्र दूर कुडा और सिरस के फूल इनको दही के | होजाता है । तोड में घोटकर दंशस्थान पर लेप करे । - उच्चटिंग की चिकित्सा । दारुण पाड़ा पर लप। अंते वृश्चिकदष्टानां समुदाणे भृशं विषे । यो मुह्यति प्रश्वसिति प्रलपत्युग्रवेदनः ३७ विषेणालेपयेइंशमुच्चिटिंगेऽप्ययं विधिः । तस्य पथ्यानिशाकृष्णामंजिष्ठातिविषोषणम् | सालाबुव॒तं वार्ताकरसषिष्टं प्रलेपनम् ३० | ____ अथ-बिच्छू के काटे हुए के अंतमें जो __ अर्थ-जो बिषरोगी मार्छत होजाताहै, विष अत्यन्त उदीर्ण हो तो उस स्थान लम्बे २ श्वास लेने लगता है, वृथा प्रलाप पर विषका ही लेप करदेना चाहिये। उच्चिकरता है और उग्रवेदना से हाय २ करताहै, टिंग के विषमें भी यही उपाय किया उसको हरड, हलदी, पीपल, मजीठ, अतीस, | जाता है । कालीमिरच, तूबी का डण्ठल, इन सवको अन्य उपाय। बैंगन के रस में पीसकर दंश थान पर | नागपुरीषच्छत्रं रोहिषमूलं च शेलुतोयेन कुर्याद्वाटिका लेपादियमलिविषनाशनीश्रेष्ठा लेप करे ॥ ___ अर्थ-हाथी के विष्टा से उत्पन्न हुआ उपविष पर घृतान । सर्वत्र चोग्रालिविषे पाययेहधिसर्पिषी।। छत्र, रोहिषतृण और लिहसोडे को जल में विध्यत्सिरी विदध्याच्च वमनांजननावनम् । उष्णस्निग्धाम्लमधुरं भोजन बानिलापहम् | से विच्छूका विष दूर होजाता है । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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