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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org अष्टांगहृदय । ( ४४२ ) तथा रक्तको दूषित करनेवाले अन्य पदार्थो के सेवन से अथवा विधिहीन दिवानिद्रा, रात्रिजागरण वा मैथुन में प्रवृत्त होने से, प्रायः सुकुमार और भ्रमण न करनेवाले पुरुषों के चोट लगनेंसे, वमन विरेचनादि द्वारा शुद्ध न होनेवाले मनुष्योंके रक्त दूषित हो जाता है तथा वातकारक और शीतल द्रव्यों के सेवन से बढा हुआ वायु कुपित होकर विमार्गगामी होजाता है । उस समय दूषित रक्तद्वारा रुका हुआ वायु प्रथम रक्तको ही दूषित करता है, तदनंतर मांसादिक अन्य धातुओं को भी दूषित करता है । इस वातदूषित रक्तको आढयरोग, खुडवात, वात वलास और वातरक्त नामसे बोलते हैं । यह रोग पहिले पांवों में उत्पन्न होता है । विशेष करके यह रोग घोडे आदि ऐसी सबारी पर बैठने से होता है जिन पर पांव लटका कर बैठना पडता है ॥ वातरक्त का लक्षण | तस्य लक्षणम् । भविष्यतः कुष्ठसमं तथासादः श्लथांगता ॥ जानुजंघोरुकटसहस्तपादांगसंधिषु । कण्ड्स्फुरण निस्तोदभेद गौरवलुप्तताः ६ ॥ भूत्वा भूत्वा प्रणश्यंति मुहुराविर्भवंति च । अर्थ-जो पूर्वरूप कुष्टरोग के कहे गये हैं वेही वातरक्त के भी होते हैं । उनके सिवाय देहावसाद और अंगशैथिल्य होते हैं । तथा जानु, जंघा, ऊरु, कटि, कंधा, हांथ, पांव, अंगसंधियों में खुजली, फडकन, सूचीवेधवतवेदना, भेद, गौरव, सुप्ति ये सब उपद्रव हो होकर मिट जाते हैं और फिर पैदा हो जाते हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १६ वातरक्त का सब देहमें फैलना । पादयोर्मूलमास्थाय कदाचिद्धस्तयोरपि ॥ ७ ॥ आखोरिव विषक्रुद्धं कृत्स्नं देहं विधावति । अर्थ - वातरक्त पांवों की जड़ में और कभी कभी हाथों के मूल में स्थित होकर चूहे के विपकी तरह कुपित होकर धीरे धीरे सब देह में फैल जाता है 1 त्वमांसाश्रयमुत्तानं तत्पूर्व जायते ततः ८ वातरक्त के दो भेद । कालांतरेण गंभीर सर्वान् धातूनाभिद्रवत् । अर्थ - वातरक्त दो प्रकार का होता है, एक उत्तान, दूसरा गंभीर । इनमें से उतान नामक वातरक्त त्वचा और मांसका आश्रय लेकर प्रथम उत्पन्न होता है । तदनंतर धीरे धीरे मेद आदि अन्य धातुओं का आश्रय लेता है तब इसे गंभीर नामक वातरक्त कहते हैं । . उत्तान के लक्षण | कंवादिसंयुतोत्ताने त्वक्ताम्रश्यावलोहिता १ सायामा भृशदाहोपा अर्थ - उत्तान वातरक्त में त्वचा में खुजली, स्फुरण और तोद होता है । इसका वर्ण ताम्र, श्याव वा लोहित होजाता है। यह रोग विस्तृत और अत्यन्त दाह और वेदना से युक्त होता है । गंभीर के लक्षण | गंभीरेऽधिकपूर्वरुक् । श्वयथुग्रथितः पाकी वायुः सध्यस्थिमज्जसु छिंदन्निव चरत्यंतर्वक्रीकुर्वश्च वेगवान् । करोति खंज पंगुं शरीरे सर्वतश्चरन् ॥ अर्थ -- गंभीर नामक वातरक्त में अत्यन्त वेदनायुक्त गांठदार पकनेवाली सूजन होती है तथा बलवान् वायु संपूर्ण शरीर में For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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