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अ १५
निदानस्थान भाषाठीकासमेत ।
मुख होनेसे, बलपूर्वक छींक लेनेसे, कठोर । अर्थ-दूषित वायु देहके आधेभाग को धनुषको खींचनेसे, ऊंचे नीचे तकिये पर | ग्रहण करके उसभागकी संपूर्ण सिरा और सिर धरने से, कठोर वस्तु चाने से, तथा | स्नायुओं को विशोषित करके तथा संधियों अन्य वातप्रकोपक हेतुओंसे वायु कुपित और के वंधनों को शिथिल करके वाम अथवा देहके ऊपरवाले भागमें स्थित होकर मुखके | दक्षिण पसवाडे को मारदेता है । रोगी का आधे भागको, अथषा कभी हंसने वा देख | आधा देह निष्काम और चेतनारहित होजाने को टेढा करदेता है, तदनंतर रोगी का | ता है , इस रोगको एकांगरोग और पक्षवध सिर कांपने लगता है, बाणी रुकजाती है, । अर्थात् पक्षाघात कहते हैं । और नेत्र जहांके तहां ठहर जाते है, दंत- सर्वांग रोग का लक्षण । चाल, स्वरभ्रंश, श्रवणशक्तिकानाश, छींक सर्वांगरोग तश्च सर्वकायाश्रितेऽनिले । का बंद होजाना, सूंघनेकी शक्तिनष्टहोजा- अर्थ-यदि कुपित वायु संपूर्ण शरीरका ना, स्मृतिका मोह, स्वप्नावस्था में त्रास, दो | आश्रय लेकर संपूर्ण शरीरकी सिरा और नों और से थूक निकलना, एक आंखका | स्नायुओं को विशोषित करके संधि वंधनोंको बंद होना जत्रुके ऊपरके भाग में, वा शरीरके | शिथिल करता हुआ संपूर्ण शरीर को निश्चेआधेभाग में, वा नीचेके भागमें तीव्र वेदना | ष्ट करदेता है तव उसे सौगरोग कहते हैं। ये सव उपद्रव उपस्थित होते हैं, इसे अर्दि- पक्षाघात का असाध्यत्व । त कहते हैं, कोई कोई इसीको एकायाम भी शुद्धवातहतः पक्षः कृच्छ्रसाध्यतमो मतः। कहते हैं, । भाषामें इसीको लकवा वा झो- कृच्छ्रस्त्वन्येन संसृष्टो विवर्यः क्षयहेतुकः । ला कहते हैं।
अर्थ-जो पक्षाघात केबल वातसे होता सिराग्रह के लक्षण ॥ है वह अत्यंत कष्टसाध्य है, जो कफपित्त के रक्तमाश्रित्य पवनः कुर्यान्मूर्धधराः सिराः ।। संयोगसे होता है वह कष्टसाध्य है और जो लक्षाः सवेदनाः कृष्णाः सोऽसाध्यः
धातुओं के क्षय से होता है यह असाध्य स्यात्सिराग्रहः ।
होनेसे त्याज्य है ॥ अर्थ-जब कुपित वायु रक्तका आश्रय
दंडक का लक्षण । लेकर मूर्धा में स्थित सिराओं को रूक्ष, शु
आमवद्धायनः कुर्यात्संस्तभ्यांगं कफान्वितः। लयुक्त और कृष्णवर्ण करदेता है तव उसे
असाध्य हतसर्वेहं दंडवइंडकं मरुत्॥४२॥ सिराग्रह कहते हैं यह असाध्य होता है । | . अर्थ-कफानुगतवायु आमद्वारा
एकांग राग का लक्षण ॥ तोंके द्वार को रोककर अंगको : गृहीत्वार्ध तनोर्वायुः सिराः स्नायुबिशाय च | है तब दंडक नाम वातव्याष्टि पक्षमन्यतरं हंति संधिबंधान् विमोक्षयन् । |
इससे देह दंडकी तरह कृत्स्रोऽर्धकायस्तस्य स्वादकर्मण्यो विचेतनः एकांगरोगं तं केचिदन्ये पक्षषधं विदुः। । हीन होजातीहै, यह
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