________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अ० १९.
चिकित्सितस्थान भाषाकासमेत ।
भल्लातकं बाकुचिका कह्निमूलं शिलाह्वयम् ॥ अर्थ-जो कुष्ठ त्वचा का वाश करदेते हैं
अर्थ-रसायन के प्रयोग की विधि के | उनमें शस्त्रकाम नहीं देताहै इसलिये उनमें । अनुसार तुवुर की गुठली, मिलावा, वाकुची । क्षार लगाना, फस्द खोलना और दोष निचीते की जड वा शिलाजीत इनमें से किसी कालना उचित हैं। का सेवन करे।
कुष्ठविशेष में लेप कुष्ठ पर लेप । लेपोऽतिकठिनेफ्रुषेसुप्तेकुष्ठेस्थिरेपुराणे . "इति दोषे विजितेंऽतम्
पीतागदस्य कार्यो बिषैः समंत्रो ऽगदेश्चानुः स्वरथे शमनं बहिः प्रलेपाविहितम्। अर्थ-पत्थरके समान कठोर, छूने में तीक्ष्णालेपोलिष्ट
खरदरा, सुन्न, स्थिर और पुराने · कोढ में 'कुष्ठं हि विवृद्धिमेति मलिने देहे ॥
मंत्रपूर्वक विषका लेप करके फिर औषधोंका . अर्थ-उक्त रीति से जब भीतर वाले • दोष विजित होजाय तब त्वचा में स्थित
लेप करना चाहिये ।. . दोषों की शांति के लिये लेप आदि का
. अन्य प्रयोग।
स्तब्धातिसुप्तसुप्तान्यस्वेदनकुंडलानि कुष्ठानि प्रयोग करना उचित है । यहां शंका होती
घृष्टानि शुष्कगोमयफेनकशस्त्रः प्रदेशानि । है कि प्रथम लेपादि द्वारा बाहर के दोषों अर्थ-जो कुष्ट, स्तब्ध, अतिसुप्त (स्पको जीतने का उपाय क्यों नहीं किया जाता शेक ज्ञान से रहित ), स्वेदरहित और खु. है । इसका समाधान यहहै कि तीक्ष्ण लेपों के जली से युक्त हो तो सूखे गोबर और अस्त्रे करने से उत्कृिष्ट हुआ कुष्ठ दोष से युक्त से रिगड कर फिर लेप करना चाहिये । देह में वृद्धि को प्राप्त होजाता है । इसलिये | मुस्तादि क्वाथ । प्रथम भीतर का शद्धि करके फिर बाहरकी मुस्तात्रिफलामइनं करंज आरग्वधकलि-, करनी चाहिये ।
मयवाः।
सप्ताहकुष्टफलिनीदायसिद्धार्थकं मानम् - कुष्ट में स्वेदन ।
एष कषायो बमनं विरेचनं वर्णकरस्तथोस्थिरकठिनमंडलानां कुष्ठामा पोटलैर्हितः ।
घर्षः। स्विनोत्सग्नं कुष्ठंशस्त्रलिखितपत त्वग्दोषकुष्टशोफप्रबोधनः पांडुरोगघ्नः ॥ - अर्थ-जिन कुष्ठोंके मंडल संपूर्ण स्थिर
__अर्थ-मोथा, त्रिफला, मैनफल, कंजा, और कठिन होते हैं उनमें पोटली स्वेद हि
अमलतास, इन्द्रजौ, सातला, कूठ, प्रियंगु, वकारी होताहै । स्वेदनसे कोढके चकत्ते
दारुहल दी, और सरसों इन सब द्रव्यों को उंचे होनेपर अस्त्रद्वारा खुरचकर उनपर लेप
डालकर जलको औटाबै । इस जलसे कुष्ठ करना चाहिये।
रोगी को स्नान करावे । यह काथ वमन कुष्टपर क्षार प्रयोग।
कारक, विरेचनकर्ता, वर्णकारक, रेमोत्पादक येषु न शस्त्र क्रमतेस्पर्शेन्द्रियनाशनेषकोष है, तथा त्वचाके दोष, कुष्ठ, शोथं और पां. तेषु निपात्यः क्षारो रक्तं दोषं निनाम्यम्। दुसेगों को नाश करनेवाला है ।।
For Private And Personal Use Only