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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८५८४] अष्टांगहृदय । म. १. रोक्ष्य में स्नेहपान । | कि भोजन के बीच पान किया हुआ धी रौक्ष्यान्मंदेऽनले सर्पिस्तैलं वा दीपनैः पिबेत् वलकारक, पुष्टिकारक भौर अग्निसीपन ___अर्थ-रूक्षता के कारण मंदाग्नि होने | होता है। पर अग्निसंदीपन औषधों से युक्त घी वा दीर्घकाल की मंदाग्नि । तेल पानकराना चाहिये। दीर्घकालप्रसंगातु क्षामक्षीणकृशानरान् । . स्नेह से हुई मंदाग्निमें उपाय । प्रसहानां रसैःसाम्लोजयत्पिशिताशिनाम् लघुष्णकटुशोधित्वाद्दीपयत्याशुतेऽनलम् । क्षारचूांसवारिष्टान् मंदे नेहातिपानतः । मासोपचितमांसत्वात्परं वलवर्धनम् ॥ . अर्थ- घृतादि स्नेहके अतिपान से उत्पन्न ___ अर्थ-जो रोगी बहुत दिनसे रोगग्रस्त हुई मंदाग्निमें क्षार, चूर्ण, आसव और अ. | हो और इससे उसकी अग्नि मंद पडजाने रिष्ट पान करावै । के कारण दुर्वल, क्षण और कृशहो गयाहो उदावर्त में उपाय । उसे मांसभक्षी प्रसहजीवों का मांसरस, अउदावर्तात्प्रयोक्तव्या निरूहणस्नेहवस्तयः। ___ अर्थ-उदावर्त से उत्पन्न हुई मंदाग्नि नारके रससे खट्टा करके भोजन में देना में निरूहण और स्नेहवस्तियों का प्रयोग चाहिये । इसका कारण यह है कि प्रसह करना चाहिये। | जीवों का मांसरस हलका, उष्ण और शो. दोषाधिक्य में मंदाग्नि। धनकर्ता होता है, इसलिये अग्नि को शीघ्र दोषाऽतिवृद्ध याऽमंदेऽग्नौसशुद्धोऽन्नविधि उद्दीप्त करता है, दूसरा कारण यहहै कि चरेत् । प्रसह प्राणियों का मांस, मांसद्वारा उपचित अर्थ-दोषकी अतिवृद्धि से उत्पन्न हुई । होता है, इसलिये भी शीघ्र बलबर्द्धक हैं । मंदाग्नि में वमनविरेचन से शुद्ध करने के | स्नेहादि अग्निवर्द्धक । पीछे पेयादिक्रम द्वारा उपचार करना चाहिये। हासवसुरारिष्टचूर्णकाथहिताशनैः । व्याधियुक्त मंदाग्नि । सम्यक् प्रयुक्तैर्देहस्य बलमग्नेश्च वर्धते ॥ व्याधिमुक्तस्य मंदेऽग्नौ सर्पिरेव तुदीपनम् । अर्थ-स्नेह, आसव, सुरा, अरिष्ट, चू• अर्थ-व्याधि दूर होनेपर भी जो मंदा- . क्वाथ और हितकारी भोजन इनका ग्नि रहै उसमें घृतपान कराने सेही अग्नि | यथायोग्य प्रयोग करने से देह और अग्नि प्रदीप्त होती है। दोनों का वल वढता है । - मार्गादिभ्रमण से मंदाग्नि । । अग्निवर्धन में दृष्टांत । अध्वोपवासक्षामत्वैर्यवाग्वा पाययघुतम्।दीतो यथैव स्थाणुश्च बाह्योऽग्निः सारदारुभिः अन्नावपीडित वल्यं दीपनं बृहणं च तत् ॥ | सस्नेहर्जायते तदाहारैःकोष्ठगोऽनलः ॥ अर्थ-मार्गभ्रमण, उपवास, और क्षीण- अर्थ-जैसे स्नेहपदार्थयुक्त सारवृक्ष अता होने से जो मंदाग्नि होती है उसमें य- र्थात् शमी और खदिरादि की लकडियों में वागू के साथ घृतपान कराना चाहिये, क्यों- लगी हुई अग्नि प्रज्वलित और स्थिर हो For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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