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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म. १० चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत । (६८३) प्रतिदोषानुसार चिकित्सा । । स्नेहको उत्कृष्टता । | स्नेहोऽम्ललवणैर्युक्तो बहुवातस्य शस्यते। प्रसके श्लैष्मिकेऽल्पामपिन कक्षतिक्तकम्। नेहमेव परं विद्याद्दुर्वलानलदीपनम् ॥ योज्यं कृशस्य व्यत्यासात्निग्धरूक्ष कफोदये नाऽलं नेहसमिद्धस्य शमायानं सुगुर्वपि । क्षीणक्षामशरीरस्य दीपनं मेहसंयुतम् । अर्थ दुर्वल अग्निके उद्दीपनके लिये दीपनं वहुपित्तस्य तिक्तं मधुरकैर्युतम् ॥ स्नेह परम प्रधान औषधहै, इसलिये दोषकी __अर्थ-वातिक और श्लौष्मिक भेदों से प्रतिपक्षी औषधोंसे सिद्ध किया हुआ स्नेह प्रसेक दो प्रकार का होता है । इनमें से विशेष करके पथ्य होताहै । क्योंकि भारी मंदाग्निवाले रोगी के कफके प्रकोप से उत्पन्न अन्नका भोजन करनेसे भी स्नेह से उद्दीहुए प्रसेक में मंदाग्नि के उद्दीपन के निमित्त रूक्ष और तिक्त द्रव्यों का प्रयोग करे । इस पित हुई अग्नि बुझ नहीं सकती है । घृतका अन्य प्रयोग। में घृत वा मधुराम्ललवण द्रव्यों का उपयोग योऽल्पाग्नित्वात्कफे क्षीणे वर्चः पक्कमपिन करना चाहिये । कफप्रसेक का यह ल श्लथम् ॥ ६९॥ क्षण हैं 'श्लेष्मणेऽति प्रसेकेन वायुःश्लेष्मण मुंचद्यद्वौषधयुतं स पिवेदल्पशो घृतम् । तेन स्वमार्गमानीतः स्वकर्माग नियोजितः ॥ मस्यतीति । मंदाग्नि के साथ कृशता हो तो समानो दीपयत्यग्निमग्नेः संधुक्षको हि सः। कफ के उदय में पर्यायक्रम से स्निग्ध और ____ अर्थ-अग्निके मंद पडजाने के कारण रूक्ष क्रिया करना चाहिये अर्थात् स्निग्ध क्रिया | कफके क्षीण होनेपर जिस रोगी का पक्क करके रूक्षक्रिया और रूक्ष क्रिया करके स्निग्ध । मल भी शिथिल होजाताहै, उसको उचितहै क्रिया करना चाहिये । यदि कफाधिक्यवाले कृश कि सेंधानमक और शुंठी से युक्त घृत थोडा और रूक्ष व्यक्ति के केवल रूक्षक्रिया ही थोडा पान करे । ऐसा करनेसे समान वायु की जायगी तो कृशता बढ जायगी। और | | अपने मार्गपर आकर और अपने कर्ममें केवल स्निग्धकिया करने से कफकी नियोजित होकर अग्नि को प्रदीप्त करती वृद्धि होगी पर्यायक्रम से स्निग्धक्रिया का | है, क्योंकि समान वायु ही अग्निको उदीपन विधान है । क्षीण और क्षाम शरिवाले रोगी करनेवाली है । के कफोदय में घृतसंयुक्त पंचकोलादि दीपन अन्य प्रयोग । औषधों की योजना करनी चाहिये । पित्ता पुरीषं यश्च कृच्छ्रेण कठिनत्वाद्विमुचति ॥ स घृतं लवणैर्युक्तं नरोऽन्नावग्रहं पिवेत्। . धिक्य मंदाग्निवाले रोगी के लिये मधुर द्रव्यों । अर्थ-जो मनुष्य मलके कठोर होजाने से युक्त आग्निसंदीपन तिक्त द्रव्यों का प्रयोग के कारण कठिनतासे त्यागताहै, उसको करना चाहिये । वाताधिक्य मंदाग्निवाले रोगी । पांचों लवणसे युक्त घृतपान कराकर अन्न के लिये अम्ल और लवण द्रव्यों से युक्त- | का भोजन करादे, ऐसा करनेसे घृतका स्नेह हित होता है। सहसा ऊर्ष गमन रुकजाताहै। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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