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अ० २९
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(२३५]
ये दोनों ही चांडाल के तुल्य समझने युक्त यंत्र शस्त्रादि सब प्रकार की सामिग्री चाहिये।
इकट्ठी करके रोगी का मुख पूर्व की ओर शस्त्रकर्म से पूर्व कर्तब्य ।
करादे और वैद्य पश्चिमाभिमुख बैठकर प्राक्शस्त्रकर्मणश्चष्टं भोजयेदनमातुरम् १४।
व्रणस्थान को सुयंत्रित करके पैने शस्त्रको पानपं पाययेन्मा तीक्ष्णं यो वेदनाक्षमः। नमूर्छत्यन्नसंयोगान्मत्तः शस्त्रं न बुध्यते १५
बहुत शीघ्र लगादे देर न करै । शस्त्र प्रअन्यत्र पूढगर्भाश्ममुखरोंगोदरातुरात्।।
| योग के समय इस बात पर विशेष ध्यान अर्थ-शस्त्रकर्म करने से पहिले रोगी । रखना चाहिये कि मर्मस्थान, सिरा, स्नायु, को अन्न का भोजन करादे जो शस्त्र कर्म । संधिस्थान की अस्थि वा धमनी पर किसी की बेदना सहने में असमर्थ हो और मद्यपी प्रकार की जोखम न पहुंचे। प्रयुक्त शस्त्र भी हो तो उसे तेज नशावाली शराब पिला अनुलोमरीति से लगावे जब तक पीव दि. दे इससे ऐसा करन से अन्न के बल के | खाई न दे पीव दिखाई देते ही शीघ्र खेच द्वारा उसे मूर्छा न होगी और मद्यके नशे में | लेना चाहिये । उसे शस्त्रकर्म की बेदना का ज्ञान न बडे पाक में दो अंगुल तक अस्त्र का होगा । किन्तु मूढगर्भ, अश्मरी, और उदर | प्रयोग कर इस से अधिक न करे जो दु. रोगों में भोजन वा मद्यपान का निषेध है। वारा शस्त्र प्रयोग की आवश्यकता हो तो
शस्त्रकर्म की विधि । पहिले स्थान से अथवा अंगुलिनल वा वराअथाऽहतोपकरण वैद्यः प्राङ्मुखमातुरम् ॥ | हादि के बालों से ब्रण के चारों ओर अच्छी संमुखो यंत्रयित्वाऽशुन्यस्येन्मर्मादि वर्जयन् अनुलोमं सुनिशितं शस्त्रमापूयदर्शनात् १७
तरह देखले और यथादेश और यथा आशय सकदवाऽऽहरेत्तच्च
पीव के स्थान तक शस्त्र चलावै । पाके तु सुमहत्यपि । पाटयेदयंगुलं सम्यग्दयंगुलव्यंगुलांतरम
ब्रण का प्रदेश । एषित्वा सभ्यगेषिण्या परितः सुनिरूपितम् |
यतो गतांगति विद्यादुत्संगो यत्र यत्र च । । अगुलीनालवालैर्वा यथादेश यथासयम् १९
तत्र तत्र व्रणं कुर्यात्सुविभक्तं निराशयम् २० अर्थ- * शस्त्र प्रयोग के समय उप
आयतंचं विशालं च यथा दोषो न तिष्ठति । x मुल मे प्रथम ही अथ शब्द दिया |
अर्थ-जितनी दूर तक नाडी की गति गया है इसका यह प्रयोजन है कि शुभ हो वहां तक घाव करदे, जहां जहां जगह मुहूर्त में दही, अक्षत, अन्नपान, रुक्म' र- ऊंची हो वहां वहां भी घाव करदे ये घाव नादि से ब्राह्मणा का पूजन करे और इ2 | अच्छी रीति से इधर उधर विभक्त हों, तथा देवता को नमस्कार करक यंत्रशस्त्र, जांव
पूयादि दोष का स्थान न रहै तथा लंवा पोष्ठ, रुई, काडे की पट्टी घृत, शहत, क
और चौडा भी करदे जिससे पूयादि दोष कादि समयोचित सामिग्री एकत्र करके पास रखले।
को रहने को स्थान न मिले ।
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