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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AC शारीरस्थान भाषाटीकासमेत । (२६७) लगाकर सुहाते हुए गर्म जल से स्नान | पहिले धीरे धीरे भीतर से जोर मारै फिर करावै और रक्षावधनादि कौतुक नामक गर्भके योनि मुखपर आनेपर प्रसव होनतक मंगलाचरण करके उसको घृत डालकर पेया । बलपूर्वक जोर मारे । पासवाली स्त्रियां उस पान करावै, तथा इस समय दाडिम आम | को इन मोठे मोठे वचनोंसे हर्षित करती रहे पुरुषसंज्ञक फलों को हाथ में लिये रहै। कि हे सभगे. हे शोभनमखवणे. तेरे पत्र हो. तदनंतर कोमल विस्तर पर पृथ्वी में | गा, धन्य है और उसके वांये कानमें संग्रहोदोनों टांगों को चौडी कराके चित्त शयन | क्त इस मंत्रका उच्चारण करे" क्षितिर्जलं वि करावै और उसके नाभि के नीचे के भाग । यत्तेजो वायुर्विष्णुः प्रजापतिः । सगर्मा त्वां समें बार बार तेल लगाकर धीरे धीरे मर्दन दा पातु वैशल्यं वा दधत्यपि । प्रसूष्व त्वमकरे जिससे वात का कोप नहो । मुंभण | विक्लिष्टमविक्लिष्टा शुमानने । कार्तिकेयार्तिपुत्रं ( जंभाई ) और चंक्रमण ( शीघ्र गमन ) | कार्तिकेयाभिरक्षितं । तथा । इहामृतं च सोम कराना भी उचित है । श्च चित्रभानुश्च भामिनि । उच्चैः श्रवाश्च उक्तकर्मका फल । तुरगो मंदिरे निवसंतुते । इदमपृतमपां समुधु गर्भःप्रयात्यबागेब तल्लिंग हृद्विमोक्षतः ७९ तं वै तब लघु गर्भमिमं प्रमुंचतु स्त्री। तद. भाविश्य जठरं गर्भो वस्तेरुपरि तिष्ठति । . अर्थ-ऊपर कहा हुआ काम करने से नलपवनार्कवासवास्ते सहलवणांवुधैर्दिशंतु गर्भ माताके दृदयस्थानको छोडकर नीचेको शांतिं । अन्य स्त्री कहें कि जो शूल न हो ता हो तो जोर मत मारै क्योंकि कुसमय उतरता है, गर्भके नीचे उतरने का यह ल जोर मारनेसे विष्टामूत्रादि का निकलना अक्षण है कि हृदयको छोडनेके पीछे वह ग नर्थकारी और अहित होता है तथा बालक में उदरमें आकर वस्ति (पेडू ) के ऊपर भी श्वास खांसी शोफ कुञ्ज आदि रोगोंसे ठहर जाता है। गर्भिणीका खट्वारोपादि ॥ आक्रांत होजाता है इसके प्रसव कष्टको दूर आव्यो हि त्वरयंत्येनां खट्वामारोपयेत्ततः॥ | करनेके लिये आंखों पर जल लगावे और अथ संपीडिते गर्भ योनिमस्याः प्रसाधयेत्। मुख पर पंखेसे हवा करै ॥ मृदु पूर्व प्रवाहेत बाढमाप्रसवाच्च सा ८१॥ हर्ष उत्पन्न करने से बालक जननेकी वेहर्षयेत्तांमुहुः पुत्रजन्मशब्दजलानिलैः।। ... दना से जो जो क्लेश होता है और ग्लानि प्रत्यायांति तथाप्राणाःसूतिक्लेशावसादिताः | - अर्थ-जव गर्भिणीके बार बार आवि अ- | उत्पन्न होती है वह दूर होकर नवीन जीवन उन र्थात् प्रसवशूल उठने लगे तव उसको खा. का संचार होता है । ट पर शयन करादे । तदनंतर वायुद्वारा ग . गर्भसंगमें धूपनादि॥ में के संपीडित होनेपर योनिके मुखपर तेल | धूपयेद्गर्भसंगे तु योनि कृष्णाहिकंचुकैः । लगावै फिर उस गर्भिणी को उचित है कि | हिरण्ययुपीमूलं च पाणिपादेन धारयेत् ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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