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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२६९) अष्टiिहृदप | अ १ मौ पार्श्वद्वयोनामाकुक्षौ द्रोण्यामिब स्थिते । | अधो गुरुत्वमदचिः प्रसेको बहुमूत्रता । वेदनोरूदरकटी पृष्टह हस्तिवंक्षणे ॥७४॥ योनिभेदरूजातोदस्फुरणस्त्रवणानि च । आवीनामनुजन्मातस्ततो गर्भोदकस्रुतिः ॥ : अर्थ - कन्या और पुत्र दोनों के मिश्रित लक्षण होने पर कुक्षि का मध्यभाग ऊंचा हो तो नपुंसक संतान होती है, और उदर के दोनों किनारे ऊंचे और बीच में द्रोणी के समान नीचा हो तो यमज संतान होती है। गर्भिणीका सूतिका ग्रहमें आश्रय । प्राक्चैव नवमान्मासात्सूतिकागृहमाश्रयेत् । देशे प्रशस्तै संभारैः संपन्नं साधकेऽहनि ॥ सत्रोदीक्षेत सासूतिं सूतिका परिवारिता । अर्थ- जो आजकल में जननेवाली होती है उसे आसन्न प्रसवा कहते हैं, ऐसी स्त्रीके आसन्नप्रसवकाल में ग्लानि ( हर्पकाक्षय ) कुक्षि और नेत्रमें शिथिलता, क्लान्ति, नीचे के अंगों में भारापन, अरुचि, मुखसे लार गिरना, बारबार मूत्रोत्सर्ग होना, ऊरु उदर कटि, पृष्ठ, हृदय, वस्ति, वंक्षण आदि ऊर्ध्व अंगों में वेदना, तथा योनि में फटने और सुई छिदने की सी वेदना होना योनि में फडकन और स्त्राव । ये सब लक्षण उपस्थित होते हैं । अर्थ - गर्भिणी स्त्री को उचित है कि नौ महिने से पहले ही सूतिका घर में रहने लग जाय । यह घर वास्तुविद्या के जानने वालों द्वारा पूर्व वा उत्तर की ओर प्रशस्त भूमि में बनवाना चाहिये, इस घर में प्रसूति के उपयोगी सब सामग्री एकत्रित करदेनी चाहिये तथा गर्भिणी स्त्री इस घर में पुष्य नक्षत्र के दिन से रहना प्रारंभ करे | योनिभेदन के पीछे आवी की उत्पत्ति होती है ( गर्भ के निकलने के समय जो शूल विशेष होता है उसे आवी कहते हैं, घरों में स्त्रियां वहुवा इस शूल को दर्द के नाम से पुकारती हैं) तदनंतर योनि से जल निकलता है इस जलको गर्भोदक कहते हैं । तथा 'इस घर में में बालक जनूंगी' इस बातको चित में धारण कर प्रसवकाल की प्रतीक्षा करती रहै, इस गर्भिणी के - साथ में ऐसी स्त्रियां रहनी चाहिये जो अनेक बार बालक जनने का अनुभव कर चुकीहों और तत्कालोचित व्यवहार में कुशल भीहों "संग्रह में लिखा है "बहुशः प्रसूताभिरनु रक्ताभिरविषादि बीभिरविसंवादिनीभिः क्लेशसहाभिः परिवृता स्वस्त्यनपराऽनुलोमनैराहार विहारैरनुलोमितवातमूत्रपरीषा प्रसवकालमुदीक्षेत मासन्नप्रसवा के लक्षण | अर्थ- गर्भोदक का स्राव होचुकने के अद्यश्वः प्रभावे म्लानिः कुक्ष्यक्षिम्लयताक्लमः | पीछे उपस्थितगर्भा उस गर्भिणी को तेल उपस्थितगर्भा के साथ कर्तव्य | अथोपस्थितगर्भा तां कृतकौतुकमङ्गलाम् । हस्तस्थपुनामफलां स्वभ्यक्तोष्णांबुसेचिताम् ॥ ७७ ॥ पाययेत्सघृतां पेयां स्तनौ भूशयने स्थिताम् । आमुझसविधमुतानामभ्यतांगीं पुनः पुनः ॥ अधोनामेर्विशृङ्गीयात्कारयेज्जृंभच॑क्रमम् । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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