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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org (200) देह को शुद्ध करके वसंतादि साधारण काल में प्रातःकाल और सायंकाल में तर्पण क्रिया करै । नेत्रमें घृत डालना ! मामय पालीं नेत्रकोशाद्वाहे समाम् ॥ Maitrini कृत्वा यथास्वं सिद्धमावपेत् । सर्पिर्निमीलिते नेत्रे तप्तां प्रविलापितम् ॥ अर्थ - नेत्र कोष के बाहर बाहर चारों ओर जौ और उरद के आटे की बनी हुई एक ऐसी बांधनी बांधे जो ऊंची हो न नीची हो, और दो अंगुल ऊंची हो । फिर दोषदृष्यादि का विचार करके यथा योग्य औषधों द्वारा सिद्ध किया हुआ घृत और गरम जल से पिघला हुआ आंखों को बन्द कराके उन के ऊपर डालै । राज्य में कर्तव्यादि कर्म । नक्तांध्यवाततिमिरकृच्छ्रवाधादिके वसाम् । आपक्ष्मामात् - अथोन्मेष शनकैस्तस्य कुर्वतः ॥ ६ ॥ मात्रां विगणयेत्तत्र वर्त्मसंधिसितासिते । egौ च क्रमशो व्याधौ शतं त्रीणिच पंचच शताति सप्त चाष्टौ च दशमंथे दशाऽनिले पिते षट् स्वस्थवृत्ते च बलासे पंच धारयेत् अर्थ - रात्र्यंध अर्थात् रतोंध, वातजन्य तिमिर और कृच्छयोधादि नेत्र रोगों में पूर्वोक्त रीति से नेत्र के चारों ओर मेंढ़नी बनाकर गरम जल द्वारा पिघली हुई चर्बी बन्द नेत्रों के ऊपर पक्ष्म के अप्रभाग तक डालै । फिर धीरे धीरे नेत्रों को खोलते हुए पूर्वोक्त मात्रा की गणना करै । वमगत, संधिगत, शुक्लगत, कृष्णगत और दृष्टिगत नेत्रयोगमें क्रम से सौ, तीनसौ, पांचसौ, सात सौ 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हृदये । आठसौ मात्रा तक नेत्र में डाली हुई औध को धारण करै । तथा मंथरोग में एक हजार, पित्तरोग में छ: सौ, स्वस्थावस्था में छः सौ और कफरोग में पांच सौ मात्रा * तक धारण करै । अपनिदेश में द्वारकरणादि । कृत्वाऽपांगे ततो द्वारं स्नेहं पात्रे तु गालयेतु । पिबेच्च धूमं नेक्षेत व्योम रूपं च भास्वरम् ॥ अर्थ - मात्रा धारण के पीछे पाली के अपांग में छेड़ करके डाले हुए स्नेहको एक पात्र में लेलेवे, पीछे धूमपान करे, तथा आकाश, सूर्य, आतप आदिचमकीले पदार्थों को न देखे | बातादिरोग में प्रतिदिन तर्पण | इत्थं प्रतिदिनं वायौ पित्ते त्वेकांतरं कफे । स्वस्थे च द्वयतरं दद्यादातृप्तोरिति योजयेत् ॥ अर्थ - इस तरह वातरोग में प्रतिदिन पित्तरोग में एक दिन वीच में देकर तथा कफरोग और स्वस्थावस्था में दो दिन का अंतर देकर तर्पण करे | अ २४ तर्पण के लक्षण । प्रकाशक्षमता स्वास्थ्यं विशदं लघु लोचनम् । तृप्ते विपर्ययोऽतृप्तेऽतितृप्ते श्लेष्मजा रुजः ॥ अर्थ-नेत्रों के अच्छी तरह तृप्त होने पर चमकीले पदार्थों के देखने की शक्ति बढ जाती है, स्वास्थ्य, विशदता, और हलका पन पैदा हो जाता है । अच्छी तरह तृप्त न होने पर इन के विपरीत लक्षण होते है तथा अतितृप्त होने पर खुजली और क For Private And Personal Use Only x नेत्र के स्वाभाविक खोलने मूंदने में • जितना काल लगता है अथवा निरंतर जानु के चारों ओर हाथ फेरने में जितना काल लगता है उसे मात्रा कहते हैं ।
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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