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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७५४) अष्टांगहृदय। म. १ . अर्थ-पत्तिकउन्माद में संतर्जन(भर्त्सना), | अर्थ-धनके क्षीण होने से अथवा कांक्रोध, मुट्ठी वा मिट्टी के ढेले से अंगको ला के वियोग से उत्पन्न दुःस्सह शोकमें नि. कूटना, शीतलता, छाया, और जल की | मग्न मन होनेके कारण प्राधिज उन्माद हो आकांक्षा, नंगापन, पीतवर्णता, अग्निकी | ता है । इससे रोगी पीला और दीन होजाता लोह, तारागण और दीपक के न होने पर है, तथा चार बार मूच्छित होकर हाय हाय भी इनका दिखाई देना, ये सब लक्षण उ- पुकारने लगता है। शोक से उद्विग्न होकर पस्थित होते हैं । नष्ट हुए धन और कांतादि का ध्यान करता कफज उन्माद के लक्षण | हुआ उनके गुणों को बढा बढा कर कहने कफादरोचकच्छर्दिरल्पाहारवाक्यता। लगता है। बहुत जगता है और चेष्टारहित स्त्रीकामता रहः प्रतिालयसिंघाणकस्रतिः हो जाता है । बैभत्स्यं शौचविद्वेषो निद्राश्वयथुरानने । विषज उन्माद । उन्मादो बलवान् रात्रौ भुक्तमात्रे च जायत । विषेण श्याववदनो नष्टच्छायायलेंद्रियः। अर्थ-कफजउन्माद में अरुचि, वमन, वेगांतरेऽपि संभ्रांतो रक्ताक्षस्तं विवर्जयेत् ॥ अल्पचेष्टा, अल्पाहार, अल्पभाषण, स्त्रीसं- अर्थ-विषज उन्माद में रोगीका देह का गम की इच्छा, निर्जन स्थान में रहने की ला पडजाता है, देह की कांति, बल और संइच्छा, लालास्राव, नासास्त्राव, वीभत्सता, पूर्ण इन्द्रियां विनष्ट होजाती हैं । रोगके वेग पवित्रता से द्वेष, निद्रा, मुखपर सूजन, के बीचमें भी रोगी अच्छी तरह विभ्रांत रात्रि के समय और भोजन करते ही रोग और रक्ताक्ष होजाता है, ऐसा रोगी असाध्य की अधिकता । ये सब लक्षण उपस्थित होते हैं। बातज उन्माद में उपाय। सन्निपातज उन्माद । अथानिलज उन्माद स्नेहपान प्रयोजयेत् । सर्षायतनसंस्थानसन्निपाते तदात्मकम् । पूर्वमावृतमार्गे तु सस्नेहं मृदु शोधनम् ॥ उन्मादं. दारुणं विद्यात् तं भिषक्पारवर्जयेत् । ___ अर्थ-वातज उन्माद में स्नेहपान कराना अर्थ-जिस उन्माद में वातादि तीनों दो- | चाहिये । किन्तु यदि वायुका मार्ग किसी अ. षों के हेतु और लक्षण विद्यमान हों वह स- न्यदोष के कारण रुका हो तो स्नेहपान से निपातज उन्माद होता है, यह भंयकर रोग | पहिले स्नेहयुक्त मृदु विरेचनादि देवे । असाध्य होता है। कफपित्तज उन्माद । पित्तज उन्माद । कफपित्तभवेऽप्यादौ वमनं सविरेचनम् । धनकांतादिनाशेन दुःसहेनाभिगवान । स्निग्धस्विन्नस्यवस्तिचशिरसासविरेचनम्। पांडुर्दीनो मुहुर्मुह्यन् हाहेति परिवते ॥ तथास्य शुद्धदेहस्य प्रसादं लभते मनः। रोदित्यकस्माम्रियते तदुणान् बहु मन्यते। अर्थ-कफ वा पित्तसे उत्पन्न हुए उन्माद शोकक्लिष्टमना ध्यायन् जागरूको विचेटते॥। में रोगीको स्निग्ध और स्विन्न करके क्रम For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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