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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अ० ६ पूर्व पहिले मन और विरेचन कराके अर्थात् कफज उन्माद में प्रथम वमन और पितज उन्माद में प्रथम विरेचन कराना चाहिये अपि शब्दके प्रयोग से यह जानना चाहिये | कि जैसे वातज उन्माद में प्रथम स्नेहपान कराया जाता है वैसे ही कफज वा पित्तज में कराना चाहिये | कैसा ही उन्माद क्यों न हो सबमें वस्ति और शिरोविरेचन देना हि त है । वस्ति द्वारा शुद्ध होने पर रोगी का मन प्रसन्न होजाता है । तीक्ष्णनस्यांजन प्रयोग । इत्थमप्यनुवृत्ती तु तीक्ष्णं नावनमंजनम् ॥ हर्षणाश्वासनोत्रासभयताडनतर्जनम् । अभ्यंगोद्वर्तनालेपधूमान् पानंच सर्पिषः ॥ युज्यात्तानि हि शुद्धस्य नयंति प्रकृतिं मनः । अर्थ- - इस तरह चिकित्सा किये जानेपर भी यदि उन्माद की शांति न हो तो तीक्ष्ण नस्य और अंजन हर्षोत्पादन, आश्वासन, त्रास भय, ताडना, तजैन, अभ्यंग,उद्वर्तन, आलेपन, धूमप्रयोग और घृतपान का प्रयोग करना चाहिये | इन उपायों से शुद्धि होनेपर रोगीका मन अपनी प्रकृति पर आजाता है । उत्तरस्थान भाषाकासमेत । अन्य घृत | हिंगुसौवर्चलग्योपैपिलांशैर्धृताढकम् ॥ सिद्धं समूत्रभुन्मादभूतापस्मारनुत्परम् । अर्थ-हींग, कालानमक, त्रिकुटा प्रत्येक दो पल, घी एक आढक इनको गोमूत्र के साथ पाक की रीति से पकावै । यह घी उन्माद, भूत और अपस्मार के करने में परमोत्तम दूर 1 ब्राह्मी घृत 1 द्वौ प्रस्थ स्वरसाडू ब्राहया घृतप्रस्थं चसाधितम् ॥ २३ ॥ ( ७५५ ) व्योषश्यामात्रवृती शंखपुष्पीनृपमैः । ससप्तलाकृमिहरैः कल्कितैरक्ष संमितैः ॥ पलवृद्या प्रयुंजीत परं मात्राचतुष्पलम् । उन्मादकुष्ठापस्मारहरं वंध्यासुतप्रदम् ॥ वाक्रूस्वरस्मृतिमेधाकृदू धन्यं ब्राह्मीघृतं . Ef स्मृतम् ? अर्थ - ब्राह्मीका रस दो प्रस्थ, घी एक प्रस्थ तथा त्रिकुटा, श्यामा, निसौथ, दंती, शंखपुष्पी, अमलतास, सातला, और वायविडंग प्रत्येक आधा पल | इन सबको पाककी रीतिसे पकालेवै । यह ब्राह्मी घृत प्रतिदिन एक पल बढाकर चार पल तक लेवे । अर्थात् पहिले दिन एक पल, दूसरे दिन दो, तीसरे दिन तीन और चौथे दिन चार पल लेवे | इससे अधिक न बढावै, फिर प्रतिदिन चार पल लेता रहै । इससे उन्माद कुठ और अपस्मार जाते रहते हैं, वंध्या के पुत्र पैदा हो जाता है, वाणी स्वर स्मृति और मेधा बढजाते हैं । यह सर्वोत्तम है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 8 ॥ कल्याणक घृत । बराविशालाभदैलादेवदार्बलबालुकैः ॥ द्विसारिवाद्विर जनद्विस्थिराफलिनीनतैः । बृहतीकुष्ठमंजिष्ठा नागकेसरदाडिमैः बेल्लतालीसपत्रैला मालतीमुकुलोत्पलैः । सदतीपद्मकहिमैः कर्षाशः सर्पिषः पचेत् ॥ प्रस्थं भूतग्रहोन्मादका सापस्मारपाप्मसु । पांडुकडूविषे शोफे मोहे मेहे गरे ज्वरे ॥ अरेतस्य प्रजसि वा दैवोपहतचेतसि । अमेधसि स्खलद्वाचि स्मृति कामेऽल्पपावके बल्यं मंगल्यमायुष्यं कांतिसौभाग्य पुष्टिदम् कल्याणकामेदं सर्पिः श्रेष्ठं पुंसवनेषु च ॥ अर्थ - त्रिफला, इन्द्रायण, बडीइलायची, देवदारू, एलुआ, दोनों सारिवा, दोनों हल्दी, For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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