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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मं० ३४ उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत । दर्द करती है, और योनि से पीला वा नीला | यथास्वोपद्वकापत्सा सान्निपातिकी ॥ रक्त निकलने लगता है। इसके सिवाय अर्थ-योनि और गर्भाशयका आश्रय वस्ति ( पेडू) और कूख में भारापन, अतिसार लेकर वातादि तीनों दोष अपने अपने उपअरुचि, तथा श्रोणि और वंक्षणमें वेदना, द्रवों को पैदा कर देते हैं। इसको सान्नितोद, और ज्वर ये सब लक्षण उपस्थित पातिकी योनिव्यापत् कहते हैं । होते हैं । ऐसी योनिको परिप्लुता कहते हैं। गर्भ के ग्रहण करने का कारण । उपप्लुतायोनि । इति योनिगदा नारी यैः शुक्रन प्रतीच्छति बातश्लेष्मामयव्याप्ता श्वेतपिच्छिलवाहिनी ततो गर्भ न गृह्णाति रोगांश्चाप्नोति दारुणान् एपप्लुता स्मृता योनि असग्दराशेगुल्मादीनावाधाश्चानिलादिभिः अर्थ-वातकफरोग से पीडित योनि जिस ____ अर्थ-ऊपर के कहे हुए योनि रोगों के में से सफेद और गिलगिला स्राव होता है, कारण स्त्री वीर्य ग्रहण करने में असमर्थ उसे उपप्लुता योनि कहते हैं । होजाती है, इस लिये उसके गर्भ की स्थिति विप्लुतायोनि । नहीं होने पाती है, तथा ऐसी स्त्री के विप्लुताख्या त्वधावनात् असग्दर, अर्श, गुल्म और वातादि जनित संजातजंतुः कंडला कंदवा चातिरतिप्रिया अनकानेक रोग उत्पन्न होजाते हैं। अर्थ-योनिको न धोने से उसमें कीडे पैदा | इति अष्टांगहृदयसंहितार्या भाषाटीकाहो जाते हैं, और बडी खुजली चलने लगती वितायां उत्तरस्थाने गुह्यरोगविज्ञानं है, खुजली के कारण पुरुषके संगमकी इच्छा ___ नाम त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ३३॥ बढ जाती है । इसे विप्लुता योनि कहते हैं। कर्णिनी के लक्षण । चतुस्त्रिंशोऽध्यायः। अकालवाहनाद्वायुः श्लेष्मरक्तविमूर्छितः। कर्णिकां जनयद्योनौ रजोमार्गनिरोधिनी । सा कर्णिनी अथाऽतो गुह्यरोगप्रतिषधं व्याख्यास्यामः । __ अर्थ-अधोवायुका बेग उपस्थित न होने अर्थ-अब हम यहांसे गुह्य रोग प्रतिपर बलपूर्वक वायु निकालने से वह वायु षेध नामक अध्यायकी की व्याख्या करेंगे । कुपित होकर तथा कफ और रक्तसे मिलकर नवीन उपदंश की चिकित्सा । योनि के मार्गमें एक कार्णका अर्थात् मांसा- | | मदमध्ये सिरां विध्येदुपदंशे नवोत्थिते। कुर पैदा कर देती है, जिससे योनिका मार्ग | शीतां कुर्यात् क्रियां शुद्धिविरेकेण विशेषतः रुक जाता है । ऐसी योनिको कर्णिनी योनि तिलकल्कघृतक्षौ लेपः पक्के तु पाटिते। कहते हैं। । अर्थ- उपदंश के उत्पन्न होतेही लिंग सान्निपातकी व्यापत। के वीचवाली सिरा को वेध देना चाहिये । त्रिमिदोषैर्योनिगर्भाशयाश्रितः । इसमें ठण्डे लेप और ठण्डा परिषेक हितहै, For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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