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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ. ११ उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत । (७७९) सेकांजनप्रभृतिभिर्जयलेखमवृहणैः ॥ २३ ॥ सकर अंजनके काममें लाये, ये तीन अंजन अर्थ-अर्मके सम्यक् छिन्न होनेपर रोगी निमि वैद्य के बनाये हुए है और तिमिर के को सुस्थता होती है, न्यून वा अधिक छेद- नाश करने में परमोत्तम हैं । तीन अंजन, न से जो रोग उत्पन्न होते हैं उनमें यथोप- यथा- (१) हरड के कल्क की भस्समें बहेयुक्त चिकित्सा अर्थात् परिषेक और अभ्यं. डे और आमले के काथ की भावना, (२) जनादि तथा लेखन और वृंहणादि क्रिया क- बहेडे के कल्क में हरड और आमले के कारना चाहिये । ढे की भावना और (३) आमले के कल्क तिमिरादि पर अंजन । में हरड और बहेडे के काढेकी भावना से सितामनः शिलालेयलवणोत्तमनागरम् । तयार किये जाते हैं। अर्धकर्षोन्मितं तायं पलार्धं च मधुप्लतम् ॥ अंजनं श्लेष्मतिमिरपिल्लशुक्लामशोषजित् । सिराजाल की चिकित्सा । अर्थ-मिश्री, मनसिल, एलुआ, सेंधानम-सिराजाले सिरायास्तु कठिनालेखनौषधः । न सियत्यमवत्तासां पिटिकानां च साधनम क, और सोंठ प्रत्येक आधाकर्ष, रसौत आ ___अर्थ-सिराजाल में जो सिरा कठोर होधापल इनको पीसकर शहत में मिलाकर | ती है और लेखन औषधियों द्वारा जिनका आंखों में आंजै, इससे श्लेष्मार्म, तिमिर, पि अच्छा होना कठिन है उनकी और पिटकाल, शुक्लार्म और शोष नष्ट हो जाते हैं । ओं की चिकित्सा अर्मके सदृश करनी चाहिये तिमिरनाशक अंजन। शुक्रकी चिकित्सा । त्रिफलैकतमद्रव्यत्वचं पानीयकल्किताम् ।। शराबपिहितां दग्ध्वा कपाले चूर्णयत्ततः। | दोषानुरोधाच्छुकेषु स्निग्धरूनं वराघृतम् । तिक्तमूर्धमसृक्नाबो रेकसेकादि चेभ्यते ॥ पृथक्शेषौषधरसैः पृथगेव च भाविता ॥ सा मषी शोषितापेष्या भूयो द्विलवणान्विता अर्थ-शुक्ररोग में दोषके अनुसार कभी त्रीण्यतान्यंजनान्याह लेखनानि परनिमिः॥ | रूक्ष और कभी स्निग्ध त्रिफला हितकारी __ अर्थ-त्रिफला में से किसी एक द्रव्यकी । होती हैं तथा तिक्तक घृत, मस्तकसे रक्त निछाल को जलमें पीसकर कल्क करले, फिर कलना शिरोविरेचन और परिषेकादि हितकर, इसको ठीकरे में रखकर ऊपरसे एक सको- क्षतशुक्रमें पकघृत पानादि। रा ढकदे और नीचे अग्नि लगाकर भस्म ! त्रिस्त्रिवृद्धारिणा पक्कं क्षतशुक्र घृतं पिवेत् । सिरया नु हरेद्रतं जलोकोभिश्च लोचनात् करले । फिर इसको पीसकर त्रिफला के बचे सिद्धनोत्पलकाकोलीद्राक्षायष्टिबिदारिभिः । हुए दो द्रव्यों की ( हरड वहेहा, या हरड | ससितनाजपयसा सेचनं सलिलन वा ॥ भामला, वा मामला बहेडा ) इनके काथ की | रागाश्रवेदनाशांती परं लेखनमंजनम् । अलग अलग भावना देवे । जब यह सूख अर्थ-क्षत शुक्ररोगमें निसोथ के काढे जाय तब इसे फिर पीसले । फिर इसमें सें- में घृतको तीन बार पकाकर पीना चाहिये, धानमक और बिडनमक मिलाकर फिर पी-पीछे फस्द खोलकर वा जोक लगाकर नेत्रों For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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